लोगों की राय

आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :172
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 4194
आईएसबीएन :0000

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

237 पाठक हैं

आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....

हठीले कुसंस्कारों से मुक्ति प्रायश्चित प्रक्रिया से ही सम्भव


दूध, शाक, फल आदि बहुत देर तक यथा स्थिति में नहीं रखे जा सकते इसलिए अधिक मात्रा में होने पर उन्हें बेचकर रुपया बना लेते हैं। यह रुपया सुरक्षित रहता है, आवश्यकतानुसार उसके बदले दूध शाक, फल अथवा दूसरी वस्तुएँ खरीदी जा सकती है। इसी प्रकार दुष्कर्म घटनाक्रम के रूप में विस्तृत एवं सामयिक होने के कारण उन्हें पीछे अपना प्रभाव प्रकट करने के लिए अन्तःचेतना 'संस्कारों के रूप में सुरक्षित रख लेती है। यह संस्कार ही व्यक्तित्व का मूलभूत आधार होते हैंं, इन्हीं के आधार पर गुण, कर्म एवं स्वभाव की विशेषताएँ पूर्व संचित पूँजी के रूप में साथ बनी रहती है। यों सामयिक कमाई भी इसमें जुड़ती रहती है और संचित संस्कार सम्पदा के प्रभाव को न्यूनाधिक करती रहती है।

मनुष्य जीवन की प्रमुख समस्याओं के कारण बाह्य परिस्थितियों में ढूँढ़ने की प्रचलित परम्परा को अपूर्ण ठहराया और अमान्य किया जा रहा है। व्यक्तित्व के अन्तराल में जमी हई हठीली कसंस्कार सम्पदा ही कठपुतली की तरह मनुष्य को त्रस्त किये रहती है, जब तक उसे बाहर न निकाल लिया जाय तब तक वह संकट दूर नहीं होता। आँख में तिनका और कान में मच्छर घुस जाय तो बेचैनी उत्पन्न होगी और वह तब तक बनी ही रहेगी, जब तक कि उन्हें निकाल न दिया जाय। पाप कृत्यों के बारे में भी यही बात है। वे बन पड़ें तो उन्हें प्रायश्चित के द्वारा निकाल बाहर करना ही एक मात्र उपाय है।

प्रमुख प्रश्न उन दुष्कर्मों का है जो भूतकाल में बन पड़े हैं और जिनके लिए आत्मा कचोटती और धिक्कारती है। वस्तुतः यह आत्म-प्रताड़ना ही शारीरिक, मानसिक रोगों को उत्पन्न करती रहती है। उसी उद्विग्नता में मन चंचल बना रहता है। न उपासना में लगता है, न सत्कर्मों में। इस काँटे को निकालना ही चाहिए। भोजन के साथ मक्खी पेट में चली गई तो उलटी कर देना ही एकमात्र उपाय है। भूतकाल में बन पड़े पापों का प्रायश्चित करके ही उनका शमन समाधान किया जा सकता है।

प्रायश्चित के चार चरण हैं - प्रथम दो पूर्वार्ध हैं, अन्तिम दो उत्तरार्ध

(१) जीवन भर के दुष्कर्मों की सूची बनाकर उनके द्वारा दूसरों को पहुँची हानि का स्वरूप समझना।

(२) दुष्कर्मों का चिंतन कर आत्म-विश्लेषण करना, उन्हें न दोहराने का संकल्प एवं विज्ञजनों के समक्ष उनका प्रकटीकरण करते हुए प्रायश्चित का संकल्प लेना।

(३) पश्चाताप के प्रतीक रूप में व्रत, उपवास, जप, अनुष्ठान आदि कृत्य करना।

(४) व्यक्ति अथवा समाज को जो हानि पहुँची हो, उसकी क्षति पूर्ति करने के लिए यथा सम्भव अधिकतम प्रयत्न करना।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. अध्यात्म क्षेत्र की उच्चस्तरीय सफलताओं का सुनिश्चित राजमार्ग

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book