आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
पाप कर्म इसलिए बनते और बढ़ते रहते हैंं कि कर्ता उनके द्वारा होने वाली हानियों पर ध्यान नहीं देता। उन्हें अन्य लोगों द्वारा अपनाई जाने वाली सामान्य क्रिया-प्रक्रिया मान लेता है। बाद में वे अभ्यास बन जाते हैं। धन, अधिकार, आतंक के उपयोग से उसे कई लाभ मिलने लगते हैंं तो उनका आकर्षण और भी अधिक बढ़ जाता है। कुमार्ग से विरत होने का यही मार्ग है कि उस मार्ग पर चलने वाले को उसकी हानियाँ स्वयं दृष्टिगोचर हों और प्रतीत हो कि इस दिशा में चलकर वह अब तक अपना तथा दूसरों का कितना अहित कर चुका। यही गतिविधियाँ जारी रहीं तो और भी कितनी हानि हो सकती है।
दुष्कर्मों, दुष्प्रवृत्तियों और दुर्भावनाओं से दूसरों का अहित और अपना हित होने की बात सोची जाती है, पर वस्तुस्थिति इसके सर्वथा विपरीत है। कुमार्ग की कँटीली राह पर चलने से अपने ही पैर काँटों में बिंधते, अपने ही अंग छिलते और कपड़े फटते हैं। झाड़ियों को भी कुछ हानि होगी, पर इससे क्या? घाटे में तो अपने को ही रहना पड़ा। अपना मस्तिष्क विकृत होने से प्रगति के रचनात्मक कार्यों में लग सकने वाली शक्ति नष्ट हुई। अनावश्यक गर्मी के बढ़ने मे यह बहुमूल्य यंत्र विकृत हुआ। शारीरिक और मानसिक रोगों की बाढ़ आई, मनःस्थिति गड़बड़ाने से द्रिया-कलाप उल्टे हुए और विपरीत परिस्थितियों की बाढ़ आ गई। हर दृष्टि से यह अपना ही अहित है। अस्तु बुद्धिमत्ता इसी में है कि सन्मार्ग पर चला जाय, सत्प्रवृत्तियों को अपनाया जाय और अन्तःकरण को सद्भावनाओं से भरा-पूरा रखा जाय।
इस प्रकार के चिंतन से ही वह विरोधी प्रतिक्रिया उत्पन्न हो सकती है जिसके कारण दुष्कर्मों के प्रति भीतर से घृणा उपजती है, पश्चात्ताप होता है। यही वे आधार' है जिनके सहारे भविष्य में वैसा न होने की आशा की जा सकती है। अन्यथा, कारणवश उपजा सदाचरण का उत्साह, श्मशान-वैराग्य की तरह हो जायेगा और फिर उसी पुराने ढर्रे पर गाड़ी के पहिये लुढ़कने लगेंगे। प्रथम चरण में पश्चात्ताप की उपयोगिता इसी दृष्टि से है कि अन्तःकरण में अनाचार विरोधी प्रतिक्रिया इतने उग्र रूप से उभरे कि भविष्य में उसी प्रकार के अनाचरण की गुंजायश ही शेष न रह जाय।
दूसरा चरण मन की गाँठें खोल देने का है। इसमें दूसरों का नहीं अपना ही लाभ है। अनैतिक दुराव के कारण मन की भीतरी परतों में एक विशेष प्रकार की मनोवैज्ञानिक ग्रन्थियाँ बनती हैं। उनसे केवल शारीरिक ही नहीं, मानसिक रोग भी उठ खड़े होते हैंं।
प्रकटीकरण के साथ-साथ उन दुष्कर्मों के प्रति लज्जित और दुःखी होने की वृत्ति का उभरना ‘पश्चात्ताप' है। पश्चात्ताप में भविष्य में वैसा न करने का संकल्प भी रहता है अन्यथा 'कह देने और करने लगने से तो बात ही क्या बनेगी। निश्चय किया जाना चाहिए कि जिस प्रकार के पाप बन पड़े हैं वैसे अथवा अन्य प्रकार के दुष्कर्मों का साहसपूर्वक परित्याग किया जा रहा है। भविष्य में पवित्र और परिष्कृत जीवन ही जीना है। ऊपर से ही लीपापोती न की जा रही हो। अन्यथा पाप की जड़ें जहाँ की तहाँ बनी रहेंगी। वे अवसर पाते ही फिर फलेंगी-फूलेंगी और पुनरावृत्ति होती रहेगी।
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