आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
पश्चात्ताप का स्वरूप है-सच्चे मन से दुःखी होना। भूल की भयंकरता का अनुभव करना और भविष्य में इस प्रकार के आचरण न करने के लिए संकल्प करना और उसे कठोरतापूर्वक निवाहना। इतना कर चुकने पर ही प्रायश्चित की यथार्थता सामने आती है। पाप के प्रकटीकरण से कई लाभ होते हैं। मन के भीतर जो दुराव की गाँठें बँधी रहती हैं वे खुलती है। मनोविज्ञान शास्त्र का सुनिश्चित मत है कि मनोविकारों के, दुष्कर्मों के दुराव से मानसिक ग्रन्थियौँ बनती है और वे अनेक शारीरिक और मानसिक रोगों के रूप में उभरती हैं। मनः चिकित्साशास्त्री, मानसिक रोगियों से उसके जीवन के घटनाक्रम को विस्तारपूर्वक बताने के लिए प्रोत्साहन करते हैंं। इसमें अप्रकट दुरावों का यदि प्रकटीकरण हो गया तो रोग का निराकरण सरल हो जाता है।
योऽन्यथा संतमात्मानमन्यथा सत्सु भाषते।
स पापकृत्तमो लोके स्तेन आत्मापहारकः।।
- मनुस्मृति
जो अपनी वस्तुस्थिति को छिपाता है, जैसा कुछ है उससे भिन्न प्रकार को प्रकट करता है वह चोर, आत्महत्यारा और पापी कहलाता है।
कृत्वा पापं न गृहेत गुह्यमानं विवर्द्धते।
स्वल्पं वाथ प्रभूतं वा धर्मविद्धयो निवेदयेत।।
तेहि पापे कृते वेद्या हन्तारश्वैव पाप्मनाम्।
व्याधितस्य यथा वैद्या बुद्धिमन्तो रुजापहाः॥
- पाराशर स्मृति
पाप कर्म बन पड़ने पर उसे छिपाना नहीं चाहिए। छिपाने से वह बहुत बढ़ता है। पाप छोटा हो या बड़ा उसे किसी धर्मज्ञ से प्रकट अवश्य कर देना चाहिए। इस प्रकार उसे प्रकट कर देने से पाप उसी तरह नष्ट हो जाते हैंं जैसे चिकित्सा करा लेने पर रोग नष्ट हो जाते हैंं। प्रकटीकरण की महत्ता बताते हुए शास्त्र कहता है-
तस्मात पापं गृहेत गुह्यमानं विवधयेत।
कृत्वा तत साधुष्वखमेयं ते तत शमयन्त्युत।।
- महा. अनु.
अतः अपने पाप को न छिपायें। छिपाया हुआ पाप बढ़ता है। यदि कभी पाप बन गया हो तो उसे साधु पुरुषों से कह देना चाहिए वे उसकी शांति कर देते हैं।
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