आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
|
237 पाठक हैं |
आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
प्रकटीकरण के उपरान्त प्रतीकात्मक दण्ड व्यवस्था का चरण है। यह सांकेतिक है। बच्चे के गलती करने पर उसे कान पकड़ने, कोने में खड़ा होने, बैठक आदि करने के हल्के दण्ड दिये जाते हैंं, यह लाक्षणिक हैं। उनका महत्व इतना भर है कि इस प्रताड़ना की स्मृति, गलती की भयंकरता और उसकी पुनरावृत्ति न करने की आवश्यकता की छाप अन्तःचेतना पर अधिक अच्छी तरह छोड़ सके, वास्तविक समाधान तो कान पकड़ने पर कहाँ होता है? चोरी करना कान पकड़ना, चोरी करना कान पकड़ना-यदि यही क्रम चलने लगे तो बात उपहासास्पद बन जायगी। यदि बच्चा किसी की कापी चुरा लाया है तो कान पकड़ने भर से उसका प्रायश्चित नहीं हुआ, वह तो स्मृति को झकझोरना भर है। जिसकी कापी चुराई गई थी, उसकी क्षति पूर्ति इतने भर से कहाँ हुई? उसकी तो कापी वापिस मिलनी चाहिए, जो हानि हुई उसकी भरपाई का प्रबन्ध होना चाहिए। प्रायश्चित का असली भाग वही है जिसमें ऋण मोचन किया जाता है।
अनैतिक दुरावों के प्रकटीकरण में खतरा भी है कि ओछे व्यक्ति उन जानकारियों का अनुचित प्रयोग करने बदनामी करने तथा हानि पहुँचाने के लिए कर सकते हैंं। अस्तु निस्सदेह इस प्रकटीकरण के लिए ऐसे सत्पात्रों को ही चुनना चाहिए जिसकी उदारता एवं दूरदर्शिता असंदिग्ध हो। चिकित्सक के आगे रोगी को अपने यौन रोगों की वस्तुस्थिति बतानी पड़ती है। उदार चिकित्सक उन कारणों को प्रकट करते नहीं फिरते, जिनकी वजह से वह रोग उत्पन्न हुए। उनका दृष्टिकोण रोगी की कष्ट निवृत्ति भर होता है। ऐसे ही उदार चेतना एवं उपयुक्त मार्गदर्शन कर सकने में समर्थ व्यक्ति ही इस योग्य होते हैं जिनके सामने मन की दुराव ग्रन्थियाँ खोली जा सकें।
ईसाई धर्म में प्रवेश करने वाले को 'वपतिस्मा' लेना पड़ता है। उस संस्कार के समय मनुष्य को अब तक के अपने पाप पादरी के सम्मुख एकान्त में कहने होते हैंं। उस धर्म में मृत्यु के समय भी यही करने की धर्म परम्परा है। मरणासन्न के पास पादरी पहुँचता है। उस समय अन्य सभी लोग चले जाते हैंं। मात्र पादरी और मरणासन्न व्यक्ति ही रहते हैंं। वह व्यक्ति अपने पापों को पादरी के सामने प्रकट करता है। इस प्रकार उसके मन पर चढ़ा भार हल्का हो जाता है। पादरी शांति-सद्गति की प्रार्थना करता और रोगी को आश्वस्त करके महाप्रयाण के लिए विदा करता है। वपतिस्मा और मरणकाल में इस स्वीकारोक्ति को-'कन्फैशन को अत्यन्त पवित्र और आवश्यक माना गया है।। मनशास्त्र के अनुसार यह प्रथा नितान्त श्रेयस्कर ठहराई गई है।
प्रायश्चित प्रकटीकरण को एक अति महत्वपूर्ण अंग माना गया है।अनैतिक कृत्यों के दुराव को कभी किसी के सामने प्रकट न किया जाय तो मनःक्षेत्र में वह उर्वरता उत्पन्न न हो सकेगी जिनसे आध्यात्मिक सद्गुणों का अभिवर्धन सम्भव होता है।
|