आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
क्षतिपूर्ति-पूर्णाहुति
क्षतिपूर्ति को शास्त्रकारों ने इष्टापूर्ति का नाम दिया है और उसे चान्द्रायण कल्प साधना के साथ एक अनिवार्य अंग के रूप में जोड़ा है।
क्षतिपूर्ति दो माध्यमों से होती है। (१) समयदान, श्रमदान (२) साधनदान, अर्थदान। श्रमदान के रूप में धर्म प्रचार की पदयात्रा को तीर्थ-यात्रा कह कर उसकी आवश्यकता बताई गई है। तीर्थयात्रा मात्र देव प्रतिमाओं के दर्शन, नदी, सरोवरों के स्नान को नहीं कहते। उच्चस्तरीय उद्देश्य के निमित्त परिभ्रमण करना, जनसम्पर्क और सत्प्रवृत्तियों के बीजारोपण, अभिवर्धन के लिए प्रबल प्रयास करना ही तीर्थयात्रा का प्रमुख उद्देश्य है। आज उसका स्वरूप जो भी बन गया हो, पर शास्त्र मर्यादा में तीर्थ यात्रा में पदयात्रा का ही उद्देश्य था। छोटे-छोटे विराम, विश्राम के रूप में ऐतिहासिक पुण्य स्थानों में कुछ समय ठहरना और वहाँ की पुरातन परम्परा का सान्निध्य प्राप्त करना उचित तो है, पर पर्याप्त नहीं। सच्ची तीर्थयात्रा लकीर पीटने, पर्यटन का मनोरंजन करने जैसी उथली नहीं हो सकती, उसके साथ कारगर परमार्थ प्रयत्नों को जुड़े हुए होना ही चाहिए।
श्रमदान में श्रेष्ठ कामों के लिए शारीरिक श्रम किया जाता है। मिलजुल कर कितने ही सामूहिक प्रयत्न सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के लिए, रचनात्मक-सुधारात्मक प्रवृत्तियों को अग्रगामी बनाने के लिए किये जाने चाहिए। इन दिनों तो उनकी नितान्त आवश्यकता है। सामूहिक श्रमदान से रीछ-वानरों का पुल बाँधना, ग्वाल-बालों का गोवर्धन उठाना प्रख्यात है। ऐसे-ऐसे अनेक कार्यक्रम प्रज्ञा अभियान के अन्तर्गत जुड़े हुए है। इनमें से कुछ सामूहिक रूप से करने के लिए हैं अथवा हजारों किसान द्वारा किये गये वृक्षारोपण प्रयास की तरह एकाकी भी किए जा सकते हैं। शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, प्रतिभापरक, प्रभाव क्षेत्र में प्रेरणादायक स्तर के अनेक प्रकार के श्रमदान है। अपने शरीर, मन, कौशल एवं प्रभाव के द्वारा स्वयं कुछ महत्वपूर्ण काम करना एवं दूसरों से करा लेना-यह सभी प्रयास श्रमदान की परिधि में आते हैं। इन प्रयोजनों के लिए कहीं भी जाना, किसी से भी सम्पर्क साधना तीर्थ यात्रा के पुण्य फल में सम्मिलित है।
क्षतिपर्ति का दूसरा प्रकार है-साधन दान। उपार्जित सम्पदा का कोई महत्वपूर्ण अंग सत्प्रयोजनों में लगा देना अंशदान है। साधनदान को अंशदान कहा गया है, धनदान नहीं। अंशदान का अर्थ होता है-अपने संचय में से किसी अनुपात में त्याग किया जाना। पेट भरने लायक दो रुपया रोज कमाने वाले द्वारा एक समय भूखा रहकर एक रुपया बचाना और उसे परमार्थ में लगा देना आधा अंशदान हुआ। दस लाख की पूँजी वाले का दस रुपया लगाना अनुपात की दृष्टि से एक लाखवाँ भाग हुआ। ' इस दृष्टि से अंशदान हजार गुना अधिक पुण्यफल दायक है।
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