आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
अध्यात्म क्षेत्र में साधनदान में धनराशि के विस्तार की कोई गणना महत्ता नहीं। परखा यह जाता है कि परिस्थितियों की तुलना में किसकी उदारता का स्तर कितना बढ़ा-चढ़ा है। किसने कितनी कृपणता त्यागी और कितनी उदार परमार्थ परायणता अपनाने में किस अनुपात में त्याग करने का साहस दिखाया।
परमार्थ प्रयोजनों में कभी अन्नदान, वस्त्रदान, औषधिदान, निर्धनों एवं कष्ट पीड़ितों की सुविधा के लिए किया जाता था। साथ ही यह भी ध्यान में रखा जाता था कि पीड़ा और पतन का एकमात्र कारण मनुष्य का पिछड़ा-पतनोन्मुख व्यक्तित्व ही है। उसे ऊँचा उठाने में संलग्न सद्ज्ञान की प्रेरणा एवं सत्कर्म की धर्मधारणा का महत्व जड़ सींचने के समान है। तात्कालिक एवं सांसारिक कष्ट दूर करने के लिए अस्पताल और सुख-सुविधा सम्वर्धन के लिए उद्यान, तालाब बनाने जैसे कार्य मात्र शरीर क्षेत्र की पदार्थ परक सुख-सुविधाएँ ही बढ़ाते हैंं। चींटी को आटा, गाय को चारा, कौए को पिण्ड खिलाना मनोवैज्ञानिक दृष्टि से संतोष उपार्जन करने का एक हल्का-फुल्का तरीका है। अन्यथा उपयोगिता की दृष्टि से उनका कोई महत्व नहीं। वे प्राणी अपने पुरुषार्थ से अपना गुजारा बड़े मजे में कर लेते हैंं। बिना आवश्यकता वाले पर दान थोपना ऐसा ही है जैसा कि करोड़पति मठाधीशों अथवा स्वर्ण जटित देवालयों पर दान-दक्षिणा का भार लादकर उन्हें किसी और अपव्यय के लिए उत्तेजित करना।
आज की स्थिति में सामाजिक आवश्यकता की पूर्ति कर सकने वाला, समस्त समस्याओं का समाधान करने वाला एक ही प्रयोजन है-प्रज्ञा विस्तार, सद्भाव सम्वर्धन की पृष्ठभूमि बनाना और अज्ञानान्धकार को मिटाने के लिए युग चेतना के दीपक जलाना। प्रज्ञा अभियान के अन्तर्गत ऐसे अनेक प्रयोजन हैं जिन्हें निश्चित रूप से ब्रह्मदान कहा जा सकता है। ब्रह्मदान को अन्य समस्त दानों की तुलना में सहम गुना अधिक पुण्य फलदायक बताया गया है। इन दिनों किसी प्रायश्चित कर्ता को अंशदान करना हो तो उसे जनमानस के परिष्कार, उत्प्रवृत्ति सम्वर्धन, आलोक वितरण को ही प्रमुखता देनी चाहिए।
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