लोगों की राय

आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :172
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 4194
आईएसबीएन :0000

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

237 पाठक हैं

आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....


परिवार निर्माण के लिए स्वयं आगे रहकर अन्य परिजनों को साथ लेना और पंचशीलों को कार्यान्वित करने के लिए समय-समय पर योजनाबद्ध प्रयास करते रहना है।

इस प्रकार इस जन्म के विस्मृत एवं पूर्व जन्म के संचित पापों से निवृत्ति का श्रेष्ठतम मार्ग देव दक्षिणा ही हो सकता है।

पापों के विषय में भी जनमानस की अनेकानेक प्रान्तियाँ है। मात्र प्रत्यक्ष ही नहीं, दृष्टिगोचर न होने वाले परोक्ष दुष्कृत्य भी पाप माने जाते हैंं। पाप शारीरिक भी होते हैंं, मानसिक और आर्थिक भी। लोग चोरी, डकैती जैसे शरीरजन्य पापों को ही पाप मानते हैंं क्योंकि कानून में जिन्हें अपराध माना गया है लोक प्रचलन में भी उनकी भर्त्सना होती है। आर्थिक पापों में न केवल ठगी, मिलावट आदि की गणना है वरन् अनुचित माध्यमों से कमाना और उसका अनावश्यक संग्रह एवं अवांछनीय अपव्यय करना भी आर्थिक पापों में गिना जाता है। मानसिक पापों में अनुपयुक्त चिंतन ही नहीं वरन् दूसरों को अनैतिक परामर्श देना, अनुचित कामों का समर्थन-सहयोग करना भी इसी श्रेणी में आता है। राग-द्वेष की, लोभ-मोह की, वासना-तृष्णा की अमर्यादित स्थिति भी अध्यात्म निर्धारण के अनुसार पाप कर्मों में ही सम्मिलित होती है। इन सभी के दुष्परिणाम होते हैंं। अस्तु प्रायश्चित की बात सोचते समय, क्षति पहुँचाने का ले खा-जोखा प्रस्तुत करते समय न केवल बहुचर्चित अपराधों पर विचार करना चाहिए वरन यह भी देखना चाहिए कि मानसिक, आर्थिक अपराध कतने और किस स्तर के बन पड़े। यों जीवन सम्पदा ईश्वर ने जिस प्रयोजन के लिए दी थी उसे भुलाकर उस अमानत को निकृष्ट प्रयोजनों से विभिन्न कामों में खर्च करना भी 'अमानत में खयानत' जैसा पाप है। शास्त्रकारों ने इसे आत्महत्या एवं ब्रह्महत्या का नाम दिया है। आत्म कल्याण का मार्ग अवरुद्ध रखे रहना स्पष्टतः जीवन देवता का, भगवान का तिरस्कार, अपमान है। इसे भी हल्का पाप नहीं मानना चाहिए।

पाप कर्मों का प्रायश्चित एवं पश्चात्ताप वर्ग की पूर्ति व्रत उपवास से, शारीरिक कष्ट सहने से, तितिक्षा कृत्यों से होती है। किन्तु क्षति पूर्ति का प्रश्न फिर भी सामने रहता है। इसके लिए पुण्य कर्म करने होते हैं, ताकि पाप के रूप में जो खाई खोदी गई थी वह पट सके, पुण्य-पाप का पलड़ा बराबर हो सके। दुष्प्रवृत्तियों को सत्प्रवृत्तियों से ही पाटा जा सकता है। इसलिए दुष्कर्म करके जो व्यक्ति विशेष को हानि पहुँचाई गई, समाज में भ्रष्ट अनुकरण की परम्परा चलाई गई, वातावरण में विषाक्त प्रवाह फैलाया गया उसको निरस्त तभी किया जा सकता है, जब सत्प्रयोजनों को संवर्षित करने वाले पुण्य कर्म करके उसकी पूर्ति की जाय, समाज को सुखी और समुन्नत बनाने वाली सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन आवश्यक माना जाय। इसके लिए समय, श्रम एवं मनोयोग लगाया जाय।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. अध्यात्म क्षेत्र की उच्चस्तरीय सफलताओं का सुनिश्चित राजमार्ग

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book