आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
तीसरा संयम है-'समय संयम'। समय को लोग ऐसे ही आलस्य प्रमाद में काटते रहते हैं। मन्दगति से अन्यमनस्क होकर बेगार भुगतने की तरह किये गये काम समय तो नष्ट करते ही है, मात्रा में भी स्वल्प एवं गुणवत्ता म भौड़े, घटिया ही होते हैंं। इस प्रकार समय उतना ही खर्च हो जाने पर भी उसका परिणाम घटिया स्तर का मिलता है। समय संयम का तात्पर्य है-एक क्षण भी अनावश्यक कामों में अथवा व्यर्थ-निरर्थक नष्ट न होने देना। हर मिनट को हीरे-मोती से तौलने योग्य बहुमूल्य मानना और उसे पूरी मुस्तैदी के साथ उपयोगी कार्यों में नियोजित रखे रहना। जो ऐसा कर पाते हैंं, वे सामान्य लोगों की तुलना में उतने ही समय में कई गना, कहीं अधिक महत्वपूर्ण सराहनीय स्तर का काम कर लेते हैंं। थोड़ी-सी जागरूकता, तत्परता, तन्मयता का समावेश कर लेने से समय की आराधना बन पड़ती है और एक से एक महत्वपूर्ण उपलब्धियों का सुयोग हस्तगत होता चलता है।
समय ही जीवन है। कौन कितना जिया, इसका मूल्यांकन वर्षों की गणना करके नहीं किया जाना चाहिए। वरन् यह देखना चाहिए किसने कितनी तत्परता के साथ किस स्तर के कामों में अपना समय लगाया। इस कसौटी पर कम समय जीने वाले भी अपने क्रिया कृत्यों के आधार पर दीर्घजीवी कहे जा सकते हैं और निरर्थक समय गंवाते रहने वाले शत आयुष लोगों को भी अल्पकाल जीने वालों, अकाल मृत्यु मरने वालों में ही गिना जायेगा। आद्य शंकराचार्य मात्र ३२ वर्ष जिये। विवेकानन्द स वर्ष की आयु में दिवंगत हो गये। उतने समय में उनने महत्वपूर्ण स्तर के इतने काम कर लिए जिन्हें देखते हुए किसी शतायु से कम नहीं अधिक समय तक जीने वाला ही कहा जा सकता है।
रावण के सम्बन्ध में कथा है कि उसने काल को चारपाई की पाटी से बाँध रखा था। उसी की अभ्यर्थना से उसने अनेक प्रकार की शक्तियाँ, सम्पदाएँ उपलब्ध की थीं। काल को इन दिनों भी कलाई पर हाथ-घड़ी के रूप में बाँधा जाता है। पर उनमें से कोई विरले ही यह समझते हैंं कि इस उपकरण का उद्देश्य समय का ध्यान रखना, उसका सुनियोजित उपयोग करना है।
जिनने समय उथले कामों में अथवा आलस्य प्रमाद में बिताया, समझना चाहिए कि उन्होंने ईश्वर प्रदत्त बहुमूल्य सम्पदा को फुलझड़ी बनाकर जलाया। स्मरण रखने योग्य तथ्य यह है कि ईश्वरीय सम्पदा के रूप में मनुष्य को समय ही मिला है। उसके बदले में संसार के बाजार में कोई भी भली बुरी वस्तु खरीदी जा सकती है। पैसा भी प्रकारान्तर से समय श्रम का ही घनीभूत स्वरूप है। वैभव के समस्त साधन, स्वरूप वस्तुतः समय की कीमत पर ही खरीदे जाते हैंं। जुआ, चोरी की तरह कोई बिना श्रम के ही किसी प्रकार की कमाई हस्तगत कर ले तो उसे अवांछनीय ही कहा जायेगा।
समय सम्पदा के बदले ही भौतिक सफलतायें अर्जित की जाती हैं और उसी के बदले आत्मिक क्षेत्र की विभूतियाँ उपलब्ध होती है। जिन्हें मौत के दिन पूरे नहीं करने हैं, जो जीवन का मूल्य समझते हैंं और उससे कुछ महत्वपूर्ण उपलब्ध करना चाहते हैंं, उन्हें यह तथ्य गाँठ-बाँध लेना चाहिए कि समय को ही जीवन समझें और दैनिक दिनचर्या में एक समूचे जीवन का कार्य निर्धारण बनाकर एक निश्चित नीति अपनायें। निरन्तर इस बात का ध्यान रखें कि कहीं समय सम्पदा का अपव्यय तो नहीं हो रहा है। अन्तिम सांस तक जीवन की हर घड़ी, पल का आदर्शवादिता का पक्षधर उपयोग होता रहे। ऐसी व्यवस्था बनाकर चलने वाले ही जीवन आनन्द लेने और गर्व से संतोष करते पाये जाते हैंं।
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