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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
कल्पकाल की त्रिविध अनिवार्य साधनाएँ
ब्रह्मवर्चस की कल्प तपश्चर्या में दो साधना क्रम ऐसे हैं जिन्हें अनिवार्य रूप से किया जाता है-त्राटक-ज्योति अवतरण की बिन्दुयोग साधना तथा नादयोग अर्थात् अनाहत नाद-ब्रह्म की साधना। ये दोनों ही ध्यानपरक अन्तःउत्कर्ष की फलदायी साधनाएँ हैं। तीसरी साधना है-दर्पण के माध्यम से देवाधिदेव आत्म देव की साधना। तीनों ही साधनाएँ सभी साधक अपने कक्ष में एकाकी करते हैंं। इन तीनों ही साट नाओं में जिस चिन्तन को प्रमुखता देनी है उसका विवेचन संक्षिप्त रूप से इन पंक्तियों में है। जिन्हें विस्तार से जानना हो या कुछ अन्य शंकाएँ हो वे मार्गदर्शक से समाधान कर सकते हैंं।
(१) त्राटक-साधना- चित्र या प्रतिमा पर ध्यान की साकार उपासना से ऊँचे उठने पर प्रकाश का ध्यान करना पड़ता है, इसे त्राटक कहते हैंं। इसे केन्द्रीभूत करके अन्तर्जगत में दिव्य आलोक का आविर्भाव करना। त्राटक साधना इस योग का प्रथम पाठ है। जब इस ध्यान धारणा का विकास उच्चतर स्थिति में होता है तो यही प्रक्रिया आत्मज्योति एवं ब्रह्मदर्शन में परिणत हो जाती है। फिर त्राटक के लिए किसी प्रकाशोत्पादक दीपक, भौतिक उपकरणों की आवश्यकता नहीं रहती।
मानवी विद्युत का सर्वाधिक प्रवाह नेत्रों से ही होता है। इसी प्रवाह को दिशाविशेष में प्रयुक्त करने के लिए नेत्रों की क्षण शक्ति को साधते हैंं। त्राटक साधना का उद्देश्य यही है। अपनी दृष्टि क्षमता में इतनी तीक्ष्णता उत्पन्न की जाय कि वह दृश्य की गहराई में उतर सके, अन्तराल में जो अति महत्वपूर्ण घटित हो रहा है उसे पकड़ने में समर्थ हो सके। त्राटक का वास्तविक उद्देश्य दिव्य दृष्टि को ज्योतिर्मय बनाना है। इसी के आधार पर सूक्ष्म जगत की झाँकी की जा सकती है। अन्तःक्षेत्र में ददी रत्न-राशि को खोजा और पाया जा सकता है। देश, काल की सूक्ष्म सीमाओं को लाँघकर अविज्ञात अदृश्य का परिचय प्राप्त किया जा सकता है।
इस साधना में शरीर को ध्यान मुद्रा में शान्त एवं शिथिल करके बैठते हैंं। सामने प्रकाश दीप रखा होता है। पाँच सैकिण्ड खुली आँख से प्रकाश दीप को देखना, तत्पश्चात आँखें बन्द करके भूमध्य भाग में उसी प्रकाश आलोक को ज्योतिर्मय देखना। जब यह ध्यान आलोक शिथिल पड़ने लगता है तो फिर नेत्र खोलकर पाँच सैकिण्ड प्रकाश दीप को देखना और फिर आँखें बन्द कर पूर्ववत् भूमध्य भाग में उसी प्रज्वलित ज्योति का ध्यान करना। यही है त्राटक साधना का स्वरूप जो चान्द्रायण कल्प में किया जाता है। इतने समय में प्रायः स्थिति ऐसी बन जाती है जिसके आधार पर देर तक भूमध्य भाग में प्रदीप्त किये गये प्रकाश की आभा को समस्त शरीर में विस्तृत एवं व्यापक हुआ अनुभव किया जा सके।
भूमध्य भाग में आज्ञाचक्र अवस्थित है। इसी को तृतीय नेत्र या दिव्य नेत्र कहते हैंं। पौराणिक आख्यान के अनुसार इसी नेत्र को खोलकर भगवान शिव ने विध्वंशकारी मनोविकार को-कामदेव को भस्म किया था। यह नेत्र प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान है। पीचुटरी-पीनियल के रूप में स्थूल रूप में विराजमान इस स्थान विशेष की सूक्ष्म संरचना नेत्रों जैसी है। इससे प्रकट-अप्रकट, दृश्य-अदृश्य, भूत-भविष्य सभी कुछ देखा, जाना जा सकता है। इस नेत्र में ऐसी प्रचण्ड अग्नि उत्पन्न करने की क्षमता है जिसके आधार पर अवांछनीयताओं को, अवरोधों को जलाकर भस्म किया जा सके। बिन्दुयोग की साधना त्राटक के माध्यम से की जाकर तृतीय नेत्र को ज्योतिर्मय बनाती है। इससे अग्नि-शिखा मनोविकारों को जलाकर भस्म कर डालती है। यह तो ऊपर शक्ति व्याख्या है। दार्शनिक दृष्टि से इसे विवेकशीलता-दूरदर्शिता का जागरण भी कहते हैंं जिसके आधार पर लोभ, मोह, वासना, तृष्णा जैसे अगणित विग्रहों का सहज ही शमन किया जा सकता है। इस साधना में एकाग्रता का उतना नहीं जितना प्रवाहक्रम की प्रखरता का महत्व है। ज्योति अवतरण की प्रकाश साधना करने वालों को अपने कलेवर के हर रोम-रोम में ज्योति के साथ-साथ दिव्य भावनाओं के समावेश का चिन्तन करते रहना व सतत उल्लास से भरी प्रसन्नता अनुभव करते रहना चाहिए।
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