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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :172
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 4194
आईएसबीएन :0000

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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....


(२) नादयोग साधना- दिव्य सत्ता के साथ आदान-प्रदान का एक माध्यम है अनाहत-नादब्रह्म की साधना। अनाहत ध्वनि प्रकृति के सतत् संयोग से निनादित हो रही है। यों सुनने में सप्तस्वर और उनके आरोह-अवरोह मात्र शब्द-ध्वनि का उतार चढ़ाव प्रतीत होते हैं और उनका उपयोग वाद्य-गायन में प्रयुक्त होता भर लगता है, पर वस्तुतः उसकी सीमा इतनी स्वल्प नहीं है। स्वर ब्रह्म अपने इन्हीं अगणित ध्वनि प्रवाहों में न जाने कितने भाव भरे संकेतों और संदेशों को इस विश्व ब्रह्माण्ड में भरता और प्रवाहित करता रहता है।

ध्यानयोग के माध्यम से हमारा अन्तःकरण उन दिव्य ध्वनियों को सुन सकता है। इस योग प्रक्रिया में कानों को बाहरी ध्वनि से विलग कर शान्त वातावरण में एकाग्र करके यह प्रयास किया जाता है कि अतीन्द्रिय जगत से आने वाले शब्द प्रवाह को अन्तः-चेतना द्वारा सुना जा सके। यों इसमें कर्णेन्द्रिय रूपी तन्मात्रा का योगदान तो रहता है, पर वह श्रवण है उच्चस्तरीय चेतन जगत की बनि लहरियाँ सुनने के लिए। इसे कर्णेन्द्रिय और अन्तःकरण का एक सम्मिलित प्रयास भी कह सकते हैं।

चान्द्रायण सत्र में सप्ताह में ६ दिन नादयोग का अभ्यास कराया जाता है। प्रत्येक साधक के कक्ष में तो ध्वनि प्रवाह को एकाकी रूप में पहुँचाना सम्भव नहीं है। सभी साधक सामूहिक रूप से एक साथ बैठकर निर्देशों को जानने के उपरान्त सुमधुर ध्वनि प्रवाह सुनते हैं। चिन्तन की प्रक्रिया क्या होनी चाहिए एवं साधक को अन्तः जागरण हेतु क्या करना चाहिए इसका उल्लेख इन पंक्तियों में है :-

शांत स्थिति से, ध्यान मुद्रा में और मन को साधकर साधक इस ध्वनि प्रवाह के साथ अपनी अन्तःचेतना को भावविभोर स्थिति में बहाने का प्रयत्न करें। जिस प्रकार सपेरे द्वारा बीन बजायी जाने पर सर्प बिल से निकलकर स्वर लहरी पर लहराने लगते हैंं, उसी प्रकार इस संगीत बनि के साथ-साथ साधक अपने मन को लहराने का प्रयत्न करे। आत्मा-परमात्मा के बीच आदान-प्रदान के भाव भरे अलंकारिक चित्रण रासलीला में किये गये हैं। इसमें गूढ़ आध्यात्मिक रहस्य ही है-नादयोग की व्याख्या, विवेचना ही उसमें सन्निहित है। वस्तुतः वह ईश्वरीय प्रयोजनों के लिए सांसारिक बन्धनों को छोड़कर चल पड़ने का संकेत है।

नादयोग में कान को सूक्ष्म चेतना की दिव्य ध्वनियाँ सुनाई देती है। कई बार ये अति मन्द होती है, कई बार अति प्रखर। वंशी की ध्वनि से कई बार कुमार्गगामी मन-वासना, तृष्णा का विषपिण्ड यह मन-विषधर सर्प की तरह लहराने लगता है। सपेरा सर्प को पकड़कर पिटारे में बन्द कर देता है। ठीक उसी प्रकार मन के निग्रह में, प्राणों के निरोध में नादयोग का ध्वनि प्रवाह बहुत ही सफल रहता है। सत्प्रवृत्तियों के साथ चल पड़ना और मन को कुमार्गगामी होने से रोककर निग्रहीत कर देना-नादयोग की विधि साधना है। सुनाई देने वाली ध्वनियों को संगीत साधक अपने चिन्तन-क्रम में इस प्रकार बिठा सकते हैं-'भगवती सरस्वती अपनी वीणा झंकृत करते हुए ऋतम्भरा प्रज्ञा के मृदुल मनोरम तारों को झनझना रही है और अपनी अन्तःचेतना में वही दिव्य तत्व उभर रहे हैं। भगवान शंकर अपना डमरू बजा रहे हैं और उससे प्रलय और मरण के संकेत आ रहे हैं। सुझाया जा रहा है कि मृत्यु कभी भी आ सकती है। प्रमाद में न उलझा जाय। महाकाल के भैरवनाद का संदेश सुना जाय। युग परिवर्तन की पुकार गूंज रही है, कह रही है कि अविलम्ब जीवनोद्देश्य की दिशा में कदम बढ़ाये जायें। अब अपनी गतिविधियों का कायाकल्प होना ही चाहिए।' यह ध्यान जितना पकेगा उतनी ही सूक्ष्म अनुभूतियाँ उससे करतलगत होंगी।

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    अनुक्रम

  1. अध्यात्म क्षेत्र की उच्चस्तरीय सफलताओं का सुनिश्चित राजमार्ग

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