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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :172
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 4194
आईएसबीएन :0000

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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....


(३) आत्मदेव की उपासना-दर्पण साधना- इसे दर्पण में स्वयं का पर्यवक्षण कह सकते हैंं। इसे साधक अपने ही कक्ष में सम्पन्न करते हैंं। देवाधिदेव परब्रह्म को अद्वैत तत्वविज्ञान ने आत्मदेव के रूप में देखा है। सोऽहम, शिवोऽहम्, तत्वमसि, अयमात्मा ब्रह्म जैसे सूत्रों में आत्मा, परमात्मा की अभिन्नता का ही प्रतिपादन किया गया है। जब तक मल-आवरण, विक्षेप, कल्मष अन्तःकरण पर चढ़े है, तभी तक जीव स्थिति है। जैसे-जैसे इन विकारों का शोधन होता है, आत्मा परमात्मा का रूप लेती जाती है।

दर्पण में अपने आप को दर्शन कर साधक यही चिंतन करते हैंं कि ईश्वरीय महत्तायें बीज रूप में जीव में पूर्णरूपेण विद्यमान है। यदि उन्हें विकसित किया जा सके तो नर में नारायण की झाँकी तत्काल देखी जा सकती है। जो कुछ बहिरंग जगत में पाया जाता है उसकी ही बीज सत्ता अन्तरंग में मौजूद है। अस्तु काय कलेवर को तुच्छ नहीं मानना चाहिए वरन् इसमें श्रेष्ठतम की झाँकी की जानी चाहिए। भौतिक सम्पदा का गर्व तो हेय है पर आत्मदेव का गौरव हर किसी को अनुभव करना चाहिए और इसी आत्मगौरव की रक्षा करने वाली, आत्म गरिमा को ज्योतिर्मय बनाने वाली रीति-नीति अपनानी चाहिए।

आत्मदेव की साधना का माहात्म्य अध्यात्म विज्ञान में अत्यधिक है। निराकार साधना में अपने कण-कण को नीलवर्ण प्राण ज्योति से ज्योतिर्मय देखने का अभ्यास किया जाता है। भावना की जाती है कि समष्टि सत्ता की प्रकाशवान दिव्य, प्रखर किरणें शरीर के रोम-रोम में प्रवेश करके बलिष्ठता बढ़ा रही हैं, मन में प्रविष्ट हो मनस्विता को प्रखर कर रही है। वे अन्तरात्मा के भाव संस्थान में प्रवेश करके आत्मशक्ति को ज्वलन्त बना रही हैं। अपना सब कुछ ज्योतिर्मय हो रहा है। साकार आत्म साधना में तो स्वयं को, अपने शरीर को ही देव-स्थान पर प्रतिष्ठापित करते हैंं। मानवी काया में पाँच कोष पंच आवरण के रूप में विद्यमान हैं। इन पाँचों को ही स्वतन्त्र चेतना के रूप में विकसित किया जा सकता है। पाँच देव यही है। जो इन्हें जागृत कर सके, वह पाँच सहायक छाया पुरुषों, सशक्त सहायकों की महत्वपूर्ण सहायता का लाभ निरन्तर उठा सकता है।

साकार आत्म साधना के लिए दर्पण का उपयोग करते हैंं। दर्पण में अपना चेहरा, आधा शरीर ध्यानपूर्वक देखते हैंं। उसे परिष्कृत स्तर का देवता मानकर उसका पूजन, स्तवन करते हैं। साथ ही यह आस्था भी जमाते हैं कि इस काय कलेवर में निवास करने वाली 'दिव्य ज्योति यदि आत्म भाव की भूमिका में जागृत हो उठे, उसे अपनी गरिमा का भान हो सके तो वह निश्चिततः देवसत्ता सम्पन्न हो सकती है। विश्वबन्धु महामानवों की पंक्ति में उसे बैठने का अवसर मिल सकता है।

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    अनुक्रम

  1. अध्यात्म क्षेत्र की उच्चस्तरीय सफलताओं का सुनिश्चित राजमार्ग

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