कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
पत्नी ने इस भभक को पिया-पचाया और तब अपनी अनदेखती आँख को ज़रा दबाकर, देखती आँख को कुछ कमान-सी ऊपर को खींचे, ठण्डे सुर में कहा, “ओहो, हमने कोई दो आँख का भी न देखा !"
बस कुछ न पूछिए कि निशाना कहाँ बैठा। पति महाशय घड़ों नहा गये और मुझे हँसी रोकना मुश्किल हो गया, तो मैं वहाँ से उठ भागा।
आपको भी सुन-पढ़कर हँसी आए, तो हँस लीजिए, पर बात तो सोचने की यह है कि क्या उन दोनों की तरह हम सब भी काने नहीं हैं और हमारा भी वही हाल नहीं है कि अपनी आँख को भूले दूसरे की आँख पर निशाना लगाये हुए हैं?
अच्छा, यह कानापन क्या है। एक पिता के दो बेटे। खेल में एक बन गया राम, तो दूसरा रावण, बस होने लगी तीरन्दाज़ी। तीर मामूली तिलनू के और धनुष बाँस की खपच्ची का, पर तीर आख़िर तीर ! रावण का तीर रामजी की दायीं आँख में खुस गया और आँख जाती रही-हो गये काने। मतलब यह कि चोट से या खोट से, एक आँख बैठ गयी और हो गये काने।
यह हुई बाहरी बात; कानेपन की भीतरी भावना क्या है? एक लोक-कथा है कि माँ का काना बेटा हरद्वार गया। लौटा तो माँ ने पूछा, "हरद्वार में तुझे सबसे अच्छा क्या लगा रे?" गाँव के भोले बेटे ने तब-तक कहीं बाज़ार देखा नहीं था। बोला, “माँ, हरद्वार का बाज़ार घूमता है।"
माँ हरद्वार हो आयी थी। बाज़ार घूमने की बात सुनकर वह घूम गयी और चौंककर उसने पूछा, “कैसे घूमता है रे, हरद्वार का बाज़ार?"
बेटे ने नये सिरे से आश्चर्य में डूबकर कहा, “माँ, मैं हर की पैडी नहाने गया, तो बाज़ार उधर था और नहाकर लौटा, तो इधर हो गया।" दुःख पाकर भी माँ हँस पड़ी और उसने बेटे को छाती से लगा लिया।
दूसरे शब्दों में काने का अर्थ है-एकांगी; जो प्रश्न को, सत्य को, इकहरा यानी अधूरा देखता है।
चलती रेल स्टेशन पर आ ठहरी। भीतर डिब्बे में कुछ मुसाफ़िर, जिनमें एक का नाम 'क' और डिब्बे के बाहर दूसरा मुसाफ़िर, जिसका नाम 'ख'। 'ख' चटखनी खोल भीतर आना चाहता है, पर 'क' उसे कहता है, “अरे भाई, पीछे तमाम गाड़ी खाली पड़ी है, वहाँ क्यों नहीं चले जाते !"
'क' एक सुन्दर नौजवान है, खासकर उसकी दोनों आँखें तो बहुत ही सुन्दर हैं, पर मानसिक रूप से वह काना है, क्योंकि मुसाफ़िरों की सुविधा के प्रश्न को वह अधूरे रूप में ही देखता है, पर क्या हम 'क' की निन्दा करें और 'ख' को अपनी सहानुभूति दें?
यह हो सकता है, पर अगले ही स्टेशन तक; क्योंकि वहाँ 'ख' डिब्बे के दरवाजे पर आ अड़ता है और ऊपर चढ़ते मुसाफ़िरों को झकझोरता है, “जब पीछे के डिब्बों में जगह खाली पड़ी है, तो यहाँ क्यों घुसे आ रहे हो?"
चढ़ने वाले नहीं मानते, तो कहता है, “हमारे देश में तो भेड़ियाधसान है साहब, जहाँ एक घुसेगा, वहीं सब घुसेंगे।'' और तब उसकी देशभक्ति उमड़ आती है, “तभी तो हमारे देश का यह हाल है।"
इसी 'ख' ने पहले स्टेशन पर 'क' के बारे में सोचा था, “अरे भाई, डिब्बे में जगह होगी, बैठ जाऊँगा, नहीं तो खड़ा रहूँगा। तुम्हारे सिर पर तो मैं गिरूँगा नहीं, फिर तुम्हें मौत क्यों आ रही है !" तो 'क' की तरह 'ख' भी काना ही है।
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