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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।

मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?


श्रीमती शान्तिदेवीजी भीतर के कमरे से चौके में आ रही थीं कि उनका पैर रास्ते में रखी बोतल से टकरा गया।

बोतल सरसों के तेल की। तेल बिखर गया, नाखून में सख्त चोट लगी। झल्लाकर छेदा से बोली, “अरे, तू जहाँ देखता है, वहीं चीज़ पटक देता है। यह बोतल रखने की जगह है? गधा कहीं का !"

अवसर पारखी छेदा ने अपनी बहूजी का पैर मसला, तेल समेटा और गलती मानी। हमारी शान्तिदेवीजी हैं बमभोला शिवशंकर; वे हँस पड़ीं और बात आयी-गयी हुई, पर इसके कोई दस-पन्द्रह दिन बाद उसी स्थान पर उसी घटना ने एक नया रूप ले लिया।

छेदा भीतर के कमरे से चौंके में आ रहा था कि उसका पैर रास्ते में रखी बोतल से टकरा गया। पैर में चोट लगी, तेल बिखर गया, बोतल टूट गयी। वह सँभल ही रहा था कि झल्लाकर शान्तिदेवीजी ने कहा, "अरे, आँख फोड़कर नहीं चला जाता तुझसे?''

छेदा चण्ट-चतुर, जानता था कि बोतल आज रास्ते में बहूजी ने रखी है, इसलिए शोख़ी से मुसकराते, कन-अँखियों से देखकर वह बोला, “बहूजी, मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप रास्ते में बोतल न रखें?"

समय की बात; मैं दोनों दिन वहीं था, इसलिए छेदा के प्रश्न में जो मीठा-पैना व्यंग्य था, उसे मैं ले पाया और बहुत ज़ोर से मेरी हँसी फूट पड़ी।

मैंने कहा, "ठीक है, जब छेदा रास्ते में बोतल रखे, तब चीज़ को गलत रखने का सिद्धान्त माना जाए और जब वही काम खुद बहूजी करें, तो आँख फोड़कर चलने का असूल लागू हो।''

बात हँसी की थी, हँसी में घुल-मिल गयी, पर मैं देखता हूँ कि हमारे जीवन में व्यापक रूप से यह रोग फैला हुआ है कि हम हरेक घटना को, हरेक प्रश्न को, अपने ही दृष्टिकोण से देखें। रोग, मैं इसे कुछ मुहावरे के तौर पर नहीं कह रहा हूँ। यह सचमुच नैतिक रोग है, जो मनुष्य को मानसिक रूप से काना बना देता है। काना-जिसकी एक आँख दुर्भाग्य से फूट गयी !

ओह, क्या बात याद आ गयी। मेरे एक मित्र थे श्री ब्रह्मदत्त शर्मा 'शिशु'। वे एक बार मुझे भी यात्रा में साथ ले गये। जहाँ गये, वहाँ उनके एक यजमान थे। निमन्त्रण पा, हम दोनों उनके घर भोजन करने गये। अजीब बात कि श्रीमतीजी की दाहिनी आँख बन्द, तो श्रीमानजी की बायीं; दोनों काने ! मैं सोचता रहा कि दो कमियों का गठबन्धन कर, यह एक पूर्णता की रचना की गयी है या दो पूर्णताएँ रोग के किसी 'कोआपरेटिव' आक्रमण से दो अपूर्णताओं में बदल गयी हैं?

भोजन बनता रहा, बातें चलती रहीं। बातों-बातों में जाने क्या बात हुई कि पति-पत्नी में बात बढ़ गयी और वे आपस में भिड़ गये। लड़ाई बातों-बातों की, पर काफ़ी पैनी। पति को शायद उसके अहंकार ने अचानक कहा-पत्नी की यह हिम्मत और हिमाक़त कि मेहमानों के सामने मुझसे चोंच भिड़ाए !

वह भभक उठा और तमककर उसने कहा, “बेहया, बके जा रही है; कानी कहीं की।"

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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