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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।

छह


यों मेरे सब प्रश्नों का समाधान हो गया, पर तभी एक नये प्रश्न ने मुझे आ घेरा-गिरना आसान है, गिरकर उठना कठिन, यह नारी गिरी, गिरने की हद तक गिरी और उठ गयी-उठने के ऊँचे-से-ऊँचे शिखर तक।

एक स्वस्थ दर्शक के मन में गिरावट के लिए दया और उठाव के लिए प्रशंसा की भावना उठनी चाहिए, पर यह क्या बात है कि वेश्या के गृहिणी बनने पर भी हमारे समाज का एक शिक्षित व्यापारी और अशिक्षित भंगी बरसों बीत जाने पर भी उसके गृहिणीपन को स्वीकार नहीं करता और वेश्यापन को भूलता नहीं; जबकि वेश्यापन पहला और गृहिणीपन बाद का है-पहला पाठ कण्ठ और बाद का पाठ -घाँ यह कैसी स्मृति है, हमारे समाज की?

और तभी याद आ गये मुझे उस पहाड़ी बेंच पर बैठे बातें करते वे दोनों परिचित, जिनमें एक बीमा-एजेण्ट। बीमा-एजेण्ट; जिसे हमारे देश में अभी कोई पसन्द नहीं करता !

और यहीं मन में फूटा-पनपा एक नया प्रश्न-भला क्यों?

बीमा-एजेण्ट हमारा बीमा करता है, तो उसमें हमारा ही लाभ है। हमें बुढ़ापे में इकट्ठा रुपया मिल जाता है, जो वैसे हम जमा न कर पाते। वह हमें बुढ़ापे की बेफ़िक्री देता है और मौत बेवक़्त आ निकले. तो बाल-बच्चों को बचाता है। बीमा में हमारा, हमारे परिवार का, हमारे देश का, लाभ ही लाभ है, फिर बीमा करने वाला हमें क्यों अच्छा नहीं लगता?

-क्योंकि हमारी आँखें देखती हैं कि इस बीमा में उसे लाभ है और हमारा दिमाग सोचता है कि वह उस लाभ के लिए ही हमारे पास आया है। तो फिर वही वेश्यावाली बात किं उसका गृहिणी बनना हमारे दिल-दिमाग को नहीं छू पाता और उसका वेश्या रूप ही हम पर छाया रहता है।

लोक-कथा में कहा गया है कि दया से द्रवित हो, नारद मुनि ने कुबड़ी बुढ़िया से कहा, “आ बुढ़िया, तेरा कूबड़ अच्छा कर दूं।"
 
बुढ़िया ने कहा, “बाबा, दयालु हुए हो, तो मेरा कूबड़ रहने दो, मेरे पड़ोसियों की कमर में कूबड़ हो जाने का वरदान दो।"

अब बाबा भौचक ! बोले, “उनकी कमर में कूबड़ होने से तुझे भला क्या फ़ायदा? तेरी कमर तो झुकी की झुकी ही रही?"

बुढ़िया तमककर बोली, “अरे बाबा, मैं भी एक बार देख लूँ कि ये मुझे किस तरह देखते हैं !"

यही दोष-दर्शन की वृत्ति सारे समाज पर छायी है कि हमें अपने लाभ से ज़्यादा दूसरे की हानि की और दूसरे के गुणों की अपेक्षा उसके दोषों की ही अधिक चिन्ता है। मक्खी नूरजहाँ के सुरभित शरीर में भी चोट की चेहट ही तो खोजती है?

एक दूसरी लोक-कथा में कहा है कि दयालु हो, कीचड़ में पड़े शूकर से नारद ने कहा, “चल, तुझे स्वर्ग ले चलूँ !"

शूकर ने कहा, “क्या है तुम्हारे स्वर्ग में बाबा?"

"स्वर्ग में? अरे मूर्ख, स्वर्ग में सब कुछ है। खाने को बत्तीस भोग, छत्तीसों व्यंजन, देखने को नृत्य, सुनने को संगीत, सेवा को अप्सराएँ-क्या नहीं है हमारे स्वर्ग में? चल, उठ !"

शूकर उठा पर उठते-उठते उसने पूछा, “महाराज, आप के स्वर्ग में कुरड़ियाँ और कीचड़ के गड्ढे भी हैं या नहीं?"

बाबा हँसे, “अरे भोंदू ! स्वर्ग में इनका क्या काम?"

अपनी कीचड़ में फिर से लेटते हुए शूकर ने कहा, “फिर वहाँ है ही क्या ख़ाक?"

उस दिन एक विद्वान् पधारे। एक ऐसी संस्था के कार्यकर्ता, जो राष्ट्र का सांस्कृतिक केन्द्र कहलाती है। कुछ दिन पहले मैंने एक ऐसे व्यक्ति पर जीवन-परिचय लिखा था, जो समय की बात, एक ऊँचे राज-पद पर भी प्रतिष्ठित है। उसकी चर्चा चली, तो बोले, “आपके पत्रों को उनसे कुछ लाभ पहुँचता होगा !"

"क्या मतलब?" “यही कि बिना मतलब किसी की तारीफ़ कोई क्यों करेगा?" मतलब से भी तारीफ़ की जाती है, यह सच है, पर हमें सब जगह और सबसे पहले वही क्यों दिखाई दे? मैंने सोचा-उस शूकर और इस विद्वान् में क्या अन्तर है?

लोक-गाथा में इस क्यों का उत्तर है। गुरु द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर से कहा, “कोई दुर्जन खोज लाओ।" वह सब जगह घूम आया, उसे कहीं कोई दुर्जन मिला ही नहीं।

उन्होंने दुर्योधन से कहा, "कोई सज्जन खोज लाओ।" वह सब जगह घूम आया, उसे कोई सज्जन मिला ही नहीं।

क्या बात हुई यह? यही बात कि हमें अपना आपा ही सब जगह दिखाई देता है। हममें दोष हैं, हमें वे सब जगह दिखाई देते हैं। हम उन्हें ही सब जगह देखते हैं, इसलिए वे हममें बराबर बढ़ रहे हैं। जीवन दोष-गुणों का ताना-बाना है। कौन है जिसमें कमी नहीं, धोती के भीतर सब नंगे, पर दोष ही दोष दिखाई देना, पहले दोष पर ही दृष्टि जाना, हमारी दृष्टि का भेंगापन है।

हम इस दोष से बचें, दोषों के रहते भी गुणों को परखें, प्यार करें, तो पाएँ कि स्वयं हमारे भी दोष कम हो रहे हैं-'यो यच्छ्रद्धः स एव सः।' गीता कहती है, जिसकी जिसमें श्रद्धा है, वह वही हो जाता है। हम गुणों को परखें, उनमें श्रद्धा रखें तो स्वयं गुणी होते चलें।

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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