कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
पाँच
सिनेमा बन गया और उसमें तस्वीरें दिखायी जाने लगीं। एक दिन परिवारसहित मैं भी निमन्त्रित था। समय पर हम पहुँचे, तो वे ही सज्जन हमें खडे मिले। बॉक्स में हमें बैठाकर वे चले आये और थोड़ी देर में एक स्त्री के साथ लौटे।
परिचय की भाषा यह थी, “लीजिए. ये भी आ गयीं आपके साथ सिनेमा देखने-इन्होंने ही आपको आज यहाँ तशरीफ़ लाने की दावत भिजवायी थी।" वे उन्हें बैठाकर चले गये। मैंने समझा उन्हें कोई ज़रूरी काम होगा, पर वे थोड़ी देर बाद आये, पत्नी की गरम चादर साथ थी, हमारे लिए पान। पान हमने खाये। वे बोली, “मुझे तो अपने ही हाथ का पान अच्छा लगता है।'' सुनते ही वे फिर चले गये और उनके पानों की डिबिया उन्हें दे गये।
'इण्टरवैल' परदे पर और वे दरवाज़े पर, चाय वाला साथ। हमने चाय पी, पान खाये। वे उस गरम चादर को पत्नी के कन्धों पर डाल, फिर चले गये और खेल खत्म हुआ कि वे फिर दरवाज़े पर-पान साथ !
चाँदने में दोनों को एक साथ गौर से देखा। नारी में सरलता भी है, बड़प्पन भी। उसकी मुसकान में आकर्षण है, जो बेधक न होकर मोहक है। बातचीत में वे खुली हैं, पर इस खुलेपन में कहीं भी हलकापन नहीं, शालीनता ही है। मैंने उन्हें बड़ी बहन कहा. तो परे मन से ही कहा। परुष में सौम्यता है। वे धीमे बोलते हैं, पर पूरी मिठास के साथ। उनकी हर बात में एक संयम है।
वे चले गये, मैं अपने प्रश्नों का उत्तर पा गया। एक वेश्या : उसके पास जो आता है, वही अपनी बात मनवाने के लिए। ठीक है, वह पैसा फेंकता ही इसलिए है कि उसकी हर इच्छा को हाँ सुनाई दे। पैसे की शक्ति के सामने सिर झुकाने की शिक्षा वेश्या को दी जाती है, वह सिर झुकाती है, पर उसके हृदय की प्यास उससे पूछती है, 'क्या इस संसार में ऐसा कोई नहीं, जो मेरी इच्छा के सामने भी सिर झुकाए? अपने सामने मेरी इच्छा को महत्त्व दे?' इस पुरुष में यह गुण है कि अपने को भूलकर, दूसरे का ध्यान रखे और यही वह रसायन है, जिसने वेश्या को पत्नी बना दिया।
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
- मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
- रहो खाट पर सोय !
- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
- लीजिए, आदमी बनिए !
- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में