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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।

चार


तीसरे दिन अपनी दरख्वास्त लिये वे आ पहुँचे। मैं रण्डी और बीवी के झमेले में उलझा था-हम बातों में ढल गये और जो कुछ हाथ आया, यह है माँ और बेटी। माँ ढलती हुई, तो बेटी उभरती हुई, जिसकी उम्र नयी, रूप नया, नाम नया, हर बात नयी और ये अभी-अभी बाप को दफ़नाकर निमटे एक नौजवान, जिनकी उम्र नयी, रूप नया, चाव नये, हर बात नयी और बाप की कमाई दौलत पास ! वे दोनों वेश्याएँ, यह आज़ाद रईस। उधर एक महा घाघ, तो दूसरी बछेरी, एक का इशारा, तो दूसरी का उस्तरा और इधर वह अलमस्त छैला, जो पिये गया और दिये गया। बस पाँच-सात बरसों में ही ऐसी हजामत बनी कि पास में इकन्नी नहीं, पर दिल में अरमानों के अभी अम्बार।

इनके लिए वह घड़ी नज़दीक, जब उस्तादजी सारंगी के गज़ से पीटकर, धकियाते हुए जीने से उतार दें और दरवाज़ा इतने ज़ोर से बन्द करें कि उसके फिर खुलने की उम्मीद का तार ही टूट जाए, पर घाघ माँ के सामने यह सूरज की तरह साफ़ कि छूटा ही बछेरी से नहीं, उसकी बछेरी भी खूटे में उलझी हुई है।

वेश्या होकर भी वह माँ और माँ समझदार, जो अपने पेशे के कोढ़ को पूरी तरह भोग चुकी थी। उसने दोनों को टिटकारियाँ दीं, टंकोरा-झकोरा, स्याह-सफ़ेद दिखाया और एक दिन मज़बूत गाँठ में स्वयं बाँध दिया। माँ एक दिन दुनिया से उठ गयी और जन्नत पहुँची, तो ज़िन्दगी के रजिस्टर में उसने देखा, इस गाँठ में उसके सब गुनाह बँध गये थे !

और ये दोनों? इनके लिए तो अब घर ही स्वर्ग था-इनकी जन्नत आसमान में नहीं, धरती पर, इन्हीं के आँगन में थी।

धन इनके पास तब रहा नहीं था, कुछ रूप के भी ये लच्छे न थे, फिर इनमें वह क्या था, जो एक चमकती परी को पत्नी बना पाया? प्रश्न उठा, पर प्रश्न ही रहा और वे उठकर चले गये। मैं सोचता रहा-एक वेश्या ने उस पुरुष को अपने जीवन की बागडोर पकड़ा दी, जिसके पास कुछ न रहा था, जो उसके ही द्वारा लुट चुका था; क्या यह दया है? या यह आत्म-समर्पण है, पुरुष के सर्वस्व समर्पण के बदले में किया गया, नारी का आत्म-समर्पण?

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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