कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
|
335 पाठक हैं |
सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
तीन
स्वस्थ होकर पहाड से लौट आया, तो एक दिन मेरे एक परिचित किसी अपरिचित को साथ लिये आये और बोले, “ये मेरे मित्र हैं भाई साहब, और आपकी मदद चाहते हैं।" ये सज्जन होंगे कोई पचास वर्ष के। चेहरे पर सौम्यता, तो गले में मिठास। बोले, “बनता-बनता मेरा सिनेमा रुक गया है। आप जानें, ये परमिट-कण्ट्रोल के दिन हैं, बिना सिफ़ारिश कोई बात नहीं करता, पर बरसात ऊपर से आ रही है, अब छत न पड़ी तो सारी लागत पानी में बह जाएगी और हम कहीं के न रहेंगे। आप टी. आर. ओ. से कहकर हमें थोडा-सा लोहा और सीमेण्ट दिला दें, तो हमारा काम बन जाए।"
मैंने कोशिश करने की बात कही और पूछा, “कौन-सा सिनेमा बना रहे हैं आप?"
बोले, “नहर की सड़क पर बना रहा हूँ। बस छत पड़ी कि तैयार हुआ। तब दिखाऊँगा आपको।"
सुनकर मुझे याद आ गयी, अपने मित्र की बात, “यह रण्डी का सिनेमा हैं?"
टटोलते-से पूछा, “पर सुना था, वह सिनेमा तो कोई बहन बना रही हैं?"
“जी हाँ !'' वे खुश होकर बोले, “वो मेरी बीवी हैं। मैं तो एक गरीब आदमी हूँ, पर उनके पास थोड़ी-सी जमा-पूँजी है। वही उसे बना रही हैं।"
वे चले गये और मुझे उलझा गये। मैं सोचता रहा-मित्र कहते हैं, यह रण्डी का सिनेमा है. ये हज़रत कहते हैं सिनेमा मेरी बीवी बना रही हैं !
मैं उठकर सिनेमा की ओर गया। म्युनिसिपैलिटी का भंगी झाडू लगा रहा था, उससे पूछा, “यह किसका सिनेमा बन रहा है चौधरी साहब?" बोला, “यह रण्डी का सिनेमा है बाबूजी !'
तभी उधर से निकले म्युनिसिपल बोर्ड के एक मेम्बर। मैंने कहा, “आप के वार्ड में तो यह बहुत शानदार सिनेमा बन रहा है, आप ही बना रहे हैं क्या?"
बोले, “नहीं जी, यह तो किसी रण्डी ने बनाया है। हम क्या बनाएँगे सिनेमा, गुज़र ही मुश्किल से हो रही है !"
मैं लौट आया। अजीब बात है कि भंगी और मेम्बर साहब, दोनों कहते हैं, यह किसी रण्डी का सिनेमा है और वे साहब फ़रमाते हैं कि मेरी बीवी यह सिनेमा बना रही हैं। क्या सारा समाज झूठा है और बस वे ही सच्चे हैं?
|
- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
- मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
- रहो खाट पर सोय !
- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
- लीजिए, आदमी बनिए !
- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में