कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
एक और मित्र हैं, घर में एक लड़का है, एक लड़की। लड़के का विवाह हुआ तो उन्होंने लड़की वाले से उसी तरह रुपया वसूल किया, जैसे पुलिस वाले किसी चोर से चोरी की जानकारी उगलवाते हैं। बाग में उन्हें ढाई हज़ार रुपये मिले, पर उम्मीद थी पाँच हज़ार की। वे शान्त रहे, पर दूसरे दिन बेटे ने फैल भर दिये कि यह तो वह लड़की ही नहीं है, जो पहले दिखायी थी; भला मैं इसे कैसे स्वीकार कर सकता हूँ ! चार-पाँच घण्टे की रस्साकशी के बाद ढाई हज़ार और मिल गये, तो लड़की रूप में लक्ष्मी और गुण में सरस्वती हो गयी।
मिले, तो मैंने कहा, “आप ने तो कसाई को भी मात कर दिया खून निकालने में !"
बिना शरमाये और झिझके, वे बोले, “बिना दबाये गन्ने से रस कहाँ निकलता है भाई साहब !"
कोई तीन वर्ष बाद उन्होंने अपनी बेटी का ब्याह रचाया, तो करम की बात, उन्हें उन जैसा ही समधी मिल गया। ऐसा चूसा कि सफ़ेद पड़ गये और यों कसा कि करवट न ले सके। विवाह के बाद एक दिन समाज की दुर्दशा पर आँसू बहाते-से वे कह रहे थे, “हमारे यहाँ लड़की वाले को तो कोई आदमी ही नहीं समझता। कम्बख्त मुझे इस तरह देखता था, जैसे मैं उसके बाप का क़र्ज़दार हूँ।"
जी में आया कह दूँ-तीन वर्ष पहले तो आपको गन्ने की उपमा बहुत पसन्द थी भाई साहब !
वही कानेपन की बात; बेचारे का बाज़ार घूम गया-लेने में दायें, तो देने में बायें।
एक और मित्र हैं, जब मिलते हैं, अपने इकलौते बेटे की शिकायत करते हैं, “कोई बात सुनता ही नहीं, सदा अपने मन की करता है। नाक में दम है पण्डितजी, ऐसी औलाद से तो बेऔलाद भला।"
एक दिन बेटा मिला, तो बोला, “मैं तो उनसे परेशान हूँ पण्डितजी, हमेशा रट लगाये रहते हैं यह मत करो, वह मत करो। आख़िर आप ही बताइए कि मैं कोई भेड़ हूँ कि गड़रिये की तरह वे मुझे हाँका करें, वरना मैं गड्ढे में गिर पडूंगा।"
कोई नयी बात नहीं, सिवाय इसके कि दोनों काने हैं-बाप को बेटे की जवानी नहीं दीखती, तो बेटा बाप की बुजुर्गी नहीं देख पाता।
जो हाल बाप-बेटे का है, वही पति-पत्नी का। एक मित्र हैं। रात में ग्यारह बजे क्लब से लौटते हैं, तो पत्नी सोयी मिलती है। एक दिन दुःखी होकर बोले, “मैं सुबह नौ बजे से कोई चौदह-पन्द्रह घण्टे घर से बाहर रहकर लौटता हूँ, तो श्रीमतीजी भैंस-सी पलंग पर सवार मिलती हैं।"
एक दिन बातों-बातों में मैंने कहा, “भाभीजी, आपसे भाई साहब को एक शिकायत है !" भरी तो बैठी ही थीं, बीच में ही बात काटकर बरस पड़ी, "ठीक है आपके भाई साहब को शिकायत है, पर पूरे अठारह घण्टे तेली के बैल की तरह काम में जुड़ी रहने के बाद, जरा पलंग से कमर लगाती हूँ; तो उनके कलेजे में मकौड़े क्यों दौड़ते हैं?"
वही बात कि दो काने एक गाँठ में बँध गये और पति महाशय पत्नी को और पत्नी महोदया पति को अपनी-अपनी आँख से घूर रहे हैं।
अपरिचित मुसाफ़िर या परिचित मित्र, सगे-सम्बन्धी या पति-पत्नी और पिता-पुत्र-से आत्मीय; जब दो भिन्न विचारों के लोग आपस में बातें करते हैं और एक-दूसरे से सहमत नहीं हो पाते, तो एक-दूसरे को बेईमान मान बैठते हैं और इस प्रकार सुलझाने वाली बातचीत, उलझाने वाली कडुवाहट में बदल जाती है, पर यदि हम सब दूसरे के दृष्टिकोण को समझने का प्रयत्न करें, तो बड़े-बड़े विवाद यों ही शान्त हो सकते हैं।
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
- मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
- रहो खाट पर सोय !
- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
- लीजिए, आदमी बनिए !
- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में