कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
एक बार फिर ताले के विरुद्ध मन विद्रोही हो उठा, पर तभी समन्वय की सृष्टि हुई कि कोई सुबोध इस स्थिति में भी उदार रहे तो वह निश्चय ही आदर्श है, प्रशंसनीय है, पर सहज और स्वस्थ वृत्ति यही है कि हमारा जीवन-व्यवहार ऐसा रहे कि उससे दूसरे के जीवन की उदारता पुस-पनपे, संकुचित या नष्ट न हो।
आज जो अनुदार हैं, कृपण हैं, संकीर्ण हैं, कल निश्चय ही उनमें से अधिकांश उदार रहे होंगे और दूसरों के व्यवहारों ने ही उनकी उदारता पर ताला लगाया होगा, पर यह कितनी विचित्र बात है कि वे दूसरे ही अब उस अनुदारता पर भाषण देने में सबसे अग्रणी हैं।
भाई बालकृष्ण अरोड़ा याद आ गये मुझे। उस दिन बातों-बातों में उन्होंने अपने एक मित्र का संस्मरण सुनाया, जिसने उनके साथ बार-बार विश्वासघात किया। अन्त में कहने लगे, पहले कोई मिलता था तो मैं मान लेता था कि यह सज्जन हैं, जब तक कि अपने व्यवहार से अपने को दुर्जन सिद्ध न कर दे, पर कोई अब मिलता है तो मान लेता हूँ कि यह दुर्जन है, जब तक कि अपने को वह अपने व्यवहार से सज्जन सिद्ध न कर दे। मैंने सोचा इस परिवर्तन के लिए उत्तरदायी कौन है?
एक दूसरे मित्र हैं। पहले सबके काम के लिए तैयार रहे थे। फ़ौजदारी के मुक़दमे में एक मित्र की ज़मानत की, महीनों खिंचे फिरे। तब से ऐसे चौकन्ने हो गये हैं कि पुढे पर हाथ ही नहीं रखने देते और जिन्होंने उन्हें ऐसा बनाया है, वे ही सब ज़ोर से कहते हैं-बहुत दिमाग़ हो गया है अब। मैं अपनी ही बात कहूँ, मैं कभी ताले-कुंजी में विश्वास न रखता था। उस दिन मैं ज़रा शौच गया कि वह बालक आया और चुपचाप जेब में हाथ डाल सब रुपये निकाल ले गया। दूसरे दिन मैं शौच गया तो आप-ही-आप बिना सोचे दरवाज़ा बन्द कर गया-बाहर न सही, अन्तर चेतना में तो घटना का प्रभाव था ही !
विश्वासघात, तभी शायद सबसे बड़ा पाप है; क्योंकि यह समाज के सर्वोत्तम गुण-सहज विश्वास पर डाका डालता है। हम इससे बचें और यों भलों को बुरा बनाने का काम न करें।
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
- मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
- रहो खाट पर सोय !
- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
- लीजिए, आदमी बनिए !
- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में