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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।

अजी, क्या रखा है इन बातों में !


देखिए, आप जानते हैं मैं एक पत्रकार हूँ। वैसे तो गली-गली पत्रकार हैं और ऐसे पत्रकार कि क्या बताऊँ आपको कि न उनका सम्बन्ध है किसी पत्र से और न वास्ता कार से, पर हैं वे इतने बड़े पत्रकार कि उनके लेटर पेपर पर भी यह छपा है और घर के बाहर के छोटे बोर्ड पर भी।

बहुत-से साथी हैं कि उन बेचारों की मज़ाक़ उड़ाते हैं। शायद आप भी उनमें हों और बहुत-से साथी हैं कि उन्हें ताने देते हैं, उन पर नाराज़ होते हैं, उनसे कुढ़ते हैं, पर मुझे न ताने सूझते हैं, न झुंझलाहट आती है।

देख रहा हूँ कि आपके चेहरे पर जो नाक है, वह ज़रा चिकुड़ गयी है और इससे आपका पूरा चेहरा ही एक प्रश्नचिह्न बन गया है। साफ़ है कि आपके गले मेरी बात नहीं उतर रही है, पर आप तो जानते ही हैं कि मैं एक पत्रकार हूँ और मेरा काम ही बातों को गले उतारना है तो मैं आपके प्रश्न का समाधान अवश्य करूँगा।

और फिर समाधान क्या था इसमें? यह न कोई दर्शन की गुत्थी है, न राजनीति की समस्या, बातों की बात है और बात का और मढे का बढ़ाना क्या, घटाना क्या? अरे भाई, बात तो सिर्फ इतनी है कि वे कहते हैं हम पत्रकार हैं और मैं कहता हूँ कि बधाई आपको कि आप बेकार तो नहीं हैं, कुछ-न-कुछ कार हैं। अब आप ही बताइए कि इस हालत में ताने, नाराजी और कुढ़न की गुंजाइश ही कहाँ है?

जी, देखिए, कुढ़न की इसमें गुंजाइश नहीं है, पर इसमें यह गुंजाइश भी नहीं है कि आप मुझे भी ऐसा ही पत्रकार समझ बैठें। मैं पत्रकार हूँ, यानी सम्पादक हूँ अपने पत्रों का।

यह लीजिए वह आ रहा है सामने से प्रेस का फ़ोरमैन। लोग समझते हैं, जाने क्या होता है सम्पादक, पर यहाँ आठ पन्ने पूरा करने में हो जाता है भुस। हाँ जी, भुस ही है और क्या कि लगने लगता है, जैसे भीतर न खून रहा हो न रस, बस सूखा-सूखा और रूखा-रूखा।

"क्या बात है भाई खैरातीलाल?"

"बात यही है कि अग्रलेख अभी तक नहीं मिला और साप्ताहिक लेट हो रहा है। अब शाम के छह बजे हैं। नोट कर लीजिए कि आपने रात में नौ बजे तक अग्रलेख न दिया तो कल पत्र नहीं निकलेगा और यह भी सोच लीजिए सम्पादकजी, कि कल की जगह वह परसों डाक में पड़ा तो सब-का-सब बैरंग हो जाएगा। गंगाधरजी तो और तरह के पोस्ट मास्टर थे। वे देर-सवेर भी ले लेते थे, पर यह जो अब नये आये हैं, बस घड़ी की सुई और कैलेण्डर की तारीख़ देखकर काम करते हैं। मैंने सब बातें आपसे कह दी हैं, अब आप जानें और आपका काम। तो नौ बजे भेज दूं सोहन या रिजवान को मैटर लेने?"

"हाँ, हाँ ज़रूर भेज देना। मुँह-हाथ धोकर चाय का प्याला पिये अब बैठता हूँ मेज़ पर। तुम नौ क्या साढ़े आठ बजे ही मँगा लेना लेख।"

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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