कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
खैरातीलाल चला गया और मैं अब मेज़ पर जा रहा हूँ। डेज़ीबिटिया ने मुझे गरम-गरम चाय पिला दी है और मूड ऐसी ताज़मताज़ा हो रही है कि कोई दिमाग में हाथ डालकर चाहे तो पूरा-का-पूरा अग्रलेख निकाल ले। लेख क्या है भारत की चहुँमुखी प्रगति को देखने के लिए एक नया चश्मा ही है।
जी हाँ, एक नया चश्मा। बात यह है कि आँख कमज़ोर हो तो उसे साफ़ नहीं दीखता, पर चश्मा लगा लो तो जोत जाग जाती है। सदियों की गुलामी में भारत की आँखें कमज़ोर हो गयी हैं, इसलिए स्वतन्त्र भारत में जो कुछ हुआ-हो रहा है, उसे हम समझ नहीं पाते। हमारी आँखें तरक्क़ी देखने की आदी हो गयी हैं, पर स्वतन्त्र भारत कर रहा है उन्नति। मेरे अग्रलेख के चश्मे से यह उन्नति साफ़ दिखाई दे जाएगी।
“वाह भाई वाह, यह तरक्क़ी और उन्नति की धुरपट खूब रही। अरे भाई, जो ख़ुदा वही ईश्वर और जो ईश्वर वही गॉड; भले आदमी, इनमें भी भला क्या भेद? और जो भेद इनमें नहीं, वह तरक्क़ी और उन्नति में कहाँ से आ घुसा?"
है न यही बात आपके मन में, पर कहूँ एक बात; बुरा न मानिएगा, आपकी बात बस बातों की बात है, यानी बेबात की बात। उसमें न जान है न मान-एकदम पोपली। भाई मेरे, तरक्की और उन्नति में बहुत फ़रक़ है। बहुत अन्तर है। लीजिए पहले मेरा चश्मा आप ही लगाइए। तरक्की है भौतिक समृद्धि, बाहरी सुख-साधनों की वृद्धि और उन्नति है मानसिक समृद्धि, किसी ऊँचे उद्देश्य के साथ जीवन की आन्तरिक प्रवृत्तियों का जुड़ जाना।
मालूम होता है साफ़-साफ़ ही कहना पड़ेगा आपसे। स्वतन्त्र भारत ने बाँधों, योजनाओं, कारखानों, भवनों के निर्माण की दिशा में जो वृद्धि की है, वह तरक्क़ी है और एक ईमानदार शान्ति-दूत के रूप में जो कार्य किया है, वह है उन्नति-प्राचीन की भाषा में एक है अभ्युदय और दूसरा है निःश्रेयस्। कहिए, है न नया चश्मा?
तो अग्रलेख मेरा तैयार है मेरे मस्तिष्क में, पर मेरा पत्र तो मस्तिष्क पर नहीं, कागज़ पर छपता है और इसलिए अपना लेख भी मुझे कागज़ पर उतारना है। तो लीजिए, यह जम गया मैं और यह लिखा शीर्षक। बस अब फरी-फर्र।
यह कौन चला आ रहा है मेरे कमरे की तरफ़? इन लोगों के लिए न समय है न असमय; जब देखा उड़ लिये हवा के झोंके से। ओह, रामचरणजी हैं।
“ओहो ! तो सम्पादकजी अभी अपनी कुरसी पर ही जोग साध रहे हैं। अरे भाई, चमगादड़ और उल्लू दुनिया के सबसे मनहूस जीव हैं, पर इस समय तो उनके परों और पैरों में भी चाल आ गयी, पर तुम्हारा पहिया ऐसा जाम हुआ कि बस जमा सो जमा। अच्छा लो, उठो अब कुरसी से।"
अच्छा लो अब उठो कुरसी से ! यह खूब रही। मुझे अभी अग्रलेख लिखकर पूरा करना है, नहीं तो पत्र लेट हो जाएगा और आप जानते हैं यह बहुत बुरी बात है। मैं उनसे कह रहा हूँ, पर कह वे रहे हैं, “अजी, क्या रखा है इन बातों में, लो उठो, बदन में डालो कुरता और पैरों में चमकाओ चप्पल और बस फुर-फुर्र; सीधे लक्ष्मी टाकीज़ में। अरे भाई, वो शानदार पिक्चर है सम्पादकजी कि उसके एक-एक गीत पर दो-दो लेख और एक-एक डायलॉग पर चार-चार अग्रलेख न्योछावर हो जाएँ।"
मैं अपनी मजबूरियाँ अपने बोलों में पिरो रहा हूँ, पर उनके पास सबका एक ही उत्तर है अजी क्या रखा है इन बातों में और लीजिए वे मेरा करता खूटी से उतारे ला रहे हैं और मेरे चप्पलों को अपने बूट से मसलते-धकेलते सरकाते। उनके हर व्यवहार का एक ही अर्थ है-अजी, क्या रखा है इन बातों में !
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
- मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
- रहो खाट पर सोय !
- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
- लीजिए, आदमी बनिए !
- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में