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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।


एक तरफ़ पत्र का अग्रलेख और दूसरी तरफ़ सिनेमा का शो। साफ़-साफ़ एक तरफ़ प्रतिष्ठा और ज़िम्मेदारी का प्रश्न और दूसरी तरफ़ एक मामूली मनोरंजन, जो कभी भी किया जा सकता है। क्योंजी, यह क्या बात है कि इतने छोटे-से प्रश्न के मुक़ाबले इतना बड़ा प्रश्न मेरे मित्र के गले क्यों नहीं उतरता? मैं अपने काम का महत्त्व जब उन्हें समझाने का प्रयत्न करता हूँ तो वे कहते हैं-अजी, क्या रखा है इन बातों में और समझते हैं कि अब मेरी बात कोई बात नहीं और बस उनकी बात ही एक बात है, पर प्रश्न तो यह है कि वे समझदार आदमी हैं, फिर मेरी बात को क्यों नहीं समझ पा रहे?

मुझे याद आ रही है उस दिन वाली टेलीफ़ोन की बात। अरे साहब, अब क्या सुनाऊँ आपको, पर सुनानी तो है ही। मुझे अपने मित्र सेठ सेवकराम खेमका से कुछ काम था कि मैंने टेलीफ़ोन उठाया और उनका नम्बर माँगा। उनका टेलीफ़ोन बहुत कम ऐसी भलमनसाहत बरतता है कि माँगते ही मिल जाए, पर उस दिन वह मिल गया और एक रूखी-सी आवाज़ कानों में पड़ी, "किसे पूछते हो?''

मैंने सेवकरामजी का नाम बता दिया तो पूछा, “कौन हैं आप?"

मैंने अपना नाम उन्हें बताया-प्रभाकर ! करूँ भी क्या, उपनाम ही मेरा नाम हो गया है और वही मुझे बताना पड़ा।

“सेठजी भीतर हैं, अपना नाम बताइए तो हम उन्हें कह दें।" फ़ोन से फिर प्रश्न हुआ और मैंने फिर अपना उपनाम बताया-प्रभाकर। सुनते ही वे बोले, “क्या कहा, टमाटर?''

अपने सम्बोधन में हरेक आदमी जीवन में बहुत कुछ सुनता है, मैं भी सनता ही रहता हूँ, पर यह सुनना सचमुच कुछ सुनना था और सच बताऊँ आपसे, सुनते ही मैं तो हँसते-हँसते लोटपोट हो गया और टेलीफ़ोन रख देने के सिवाय मुझे कुछ न सूझा, पर कहानी का क्लाइमेक्स अभी बाक़ी है। थोड़ी देर बाद सेवकरामजी से फ़ोन मिला तो पूछा, अरे भाई, ये कौन थे फ़ोन पर, जो मुझे टमाटर बना रहे थे?

वे भी ज़ोर से हँसे और तब बोले, “भाई साहब, वे हमारे रसोइयाजी थे। बात यह है कि उनकी रसोई में आप तो कभी आते नहीं, पर टमाटर रोज़ आते हैं, अब आप ही बताइए कि प्रभाकर की जगह वे टमाटर को याद करते हैं तो क्या बुरा करते हैं?"

सुनकर मुझे भी इतने ज़ोर से हँसी आयी कि टेलीफ़ोन रख देने के सिवाय कुछ और नहीं सूझा, पर तभी खुल गयी मेरे सामने रामचरणजी के आग्रह की बात कि वे मेरे अग्रलेख को महत्त्व न देकर सिनेमा चलने को महत्त्व क्यों दे रहे थे?

क्यों दे रहे थे? वही तो कह रहा हूँ। बात यह है कि हम जो चाहते हैं, वह चाहने लायक़ है या नहीं, इसे भूल जाते हैं और भूल क्या जाते हैं चाह का चाव हमें दूसरी बात पर ध्यान ही नहीं देने देता, क्योंकि ध्यान का आधार है सम्पर्क, पर जब कोई बात अपनी गहराई से अपनी सचाई और हमारी चाह के बीच में आकर खड़ी होती है, हमें अपने बारे में सोचने को मजबूर करती है, तब सचाई और गहराई के उस तक़ाज़े को टालने के लिए हम एक ढाल का प्रयोग करते हैं और वही ढाल है, अजी, क्या रखा है इन बातों में !

जीवन भी एक अद्भुत यन्त्र है, अजीव मखमसा है। इसमें बहुत-सी चीजें हैं जिन्हें हमने कभी नहीं देखा और कभी नहीं जाँचा, पर हम उन्हें सौ नहीं सवा सौ फ़ीसदी सच मानते हैं। ऐसी एक बात है कबूतर और बिल्ली की। कहते हैं जब कबूतर अपने मज़े में गुटर गूं लगा रहा हो और एक डरावनी बिल्ली कहीं से बचती-सिमटती अचानक उसके सामने आ कूदे तो तै है कि बिल्ली नहीं, मौत ही छाती पर आ कूदी।

अक्ल की माँग है कि कबूतर अब एक भी पल ख़राब न करे, अपने पर तोले और झपाके से यों उड़े कि श्रीमती बिल्ली देवीजी देखा करें टुकर-टुकर और माँजा करें अपनी ही जीभ से अपने होठ, जैसे रसगुल्ला किसी बच्चे के होठों से लगकर नीचे की गन्दी ज़मीन पर आ गिरा हो, पर नहीं, कबूतरजी न तोलेंगे पर और न लेंगे उड़ारी, बस अपनी जगह ज़रा सिमटेंगे और आँखें करेंगे बन्द और समझे आप कि समझेंगे यह कि न अब हम दीख रहे हैं देवीजी को और न कुछ कर सकती हैं हमारा वे।

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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