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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।


कहते हैं जब आदमी सोता है, उसकी अक्ल तब भी जागती रहती है। तो अब उनकी अक्ल उनकी इस समझदारी पर हँसेगी और कहेगी उनसे कि भले आदमी, ज़रा आँख की दोनों नहीं तो एक ही पुतली को टिमटिमाकर देख, यमराज अपना पंजा साध रहा है बौड़म, पर जानते हैं आप कि कबूतरजी क्या कहेंगे यह बात सुनकर?

वे कहेंगे बस यह कि अजी, क्या रखा है इन बातों में और बस ज़रा और सिमट जाएँगे वे महाशय, जैसे स्वयं ही अपनी रोटी का एक ग्रास, चपाती का एक लुक्मा बना रहे हों। यह दुनिया दूसरों को रोटी का ग्रास बनाने में वैसे ही बहुत होशियार है, फिर जब कोई स्वयं ग्रास बनने में सहायता-सहयोग देने लगे तो क्या कहने, मुफ्त में और मीठा। पता नहीं बिल्ली और कबूतर की इस बात में कितनी सचाई है और कितनी नहीं, पर मेरी आप मानें तो इसे सच मान लें और सच भी सचमुच सौ फ़ीसदी।

अपनी बात कहूँ आपसे? मैंने तो पिछले साल से इसे पूर्ण सत्य मान लिया है और यह काम किसी खंडहर या वीरान में नहीं, भारत की राजधानी के चहल-पहली कनॉट प्लेस में एक बेंच पर बैठे-बैठे किया था।

"क्या किया था आपने कनॉट प्लेस में बैठकर?' यह आप पूछ रहे हैं और मैं कह रहा हूँ आपसे कि कनॉट प्लेस में बैठकर मैंने इसे सौ टका सच मान लिया था कि एक ऐसी भी दवा है जिसे खाकर आदमी भय को, ख़तरे को सामने देखकर भी आँख मीच सकता है और मान सकता है कि अब कोई भय नहीं रहा; बिलकुल उस कबूतर की तरह !

“ऐं ! क्या कहा कि ऐसी कोई दवा है कि जिसे खाकर आदमी सामने के भय को भूल सकता है?"

हाँ जी, आपका प्रश्न सही है, सच है, काम का है और मैं कहता हूँ कि हाँ, एक ऐसी दवा है और लीजिए बताऊँ आपको कि वह दवा ऐसी नहीं कि गोविन्द अत्तार पुड़िया में बाँध दे या केमिस्ट किचनर शीशी में घोल दे। वह दवा ऐसी है कि आप ही घोलें और आप ही पिएँ। वह दवा है यह ज्ञान कि अजी क्या रखा है इन बातों में और इस ज्ञान का साक्षात्कार मुझे कनॉट प्लेस में हुआ था।

बात यह हुई कि मैं कनॉट प्लेस में एक बेंच पर बैठा ताज़ी हवा ले रहा था कि मेरे पास ही सड़क पर एक मोटर टैक्सी रुकी और उसका ड्राइवर और यात्री दोनों में गुत्थमगुत्था होने लगी। लड़तों के बीच में आ कूदना और लड़ाई को असम्भव कर देना मेरा स्वभाव है और स्वभाव न समय देखता है न स्थान। मैं भूल गया कि मैं परदेश में हूँ और जा पहुँचा युद्ध-क्षेत्र में।

पहला निशाना बिठाया मैंने ड्राइवर पर, “अपनी सवारियों से ही लड़ते हो भैया?' बोला, “बाबूजी, जब सवारी नाकू हो जाए तो क्या करें? सुबह आठ बजे इन्होंने टैक्सी ली और कुतुबमीनार और जाने कहाँ-कहाँ ले गये। अब पाँच बजे गाड़ी छोड़ रहे हैं तो कहते हैं कि किराये के रुपये मेरे पास नहीं हैं।"

यात्री साहब झमककर बोले, “अजी, क्या रखा है इन बातों में। लो हटो, अब हमें जाने दो। दो-चार दिन में फिर मिलेंगे और न मिले तो यार, क़यामत के दिन अपना हिसाब कर लेना, वहाँ ज़रूर मिलेंगे !"

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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