कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
दोपहर भोजन के बाद मुझे ध्यान आया कि मेरे अतिथि को पान मिलना चाहिए। कोई पास था नहीं तो मैं ही चला गया सिनेमा के पास वाली दूकान पर।
"भाई, मेरे पास दो रुपये का नोट है और मुझे दो पान लेने हैं, दोगे?" बाद की उलझन से उसे और अपने को बचाने के लिए दूकानदार से मैंने कहा !
वह पान लगाने लगा, मैं खड़ा रहा। तब पान लिये, नोट दिया और उसने जो एक रुपया और बाक़ी खरीज दी, उसे जेब में डाल चल पड़ा। खोटा-खरा देखना मेरे संस्कार के विरुद्ध है; क्योंकि मैं पारखी नहीं, विश्वासी हूँ। अकसर खोटे सिक्के आ जाते हैं और अपने नियम के अनुसार कुएँ या नाले में फेंक देता हूँ। उन्हें किसी को चलाता नहीं और इस तरह प्रतिमास कुछ-न-कुछ आर्थिक हानि सहता हूँ, पर संस्कार और सिद्धान्त हानि-लाभ देखकर तो जीते नहीं, तो खरीज बिना देखे ही जेब में डालकर मैं लौट पड़ा।
"बाबूजी, सुनिएगा ज़रा।" किसी ने पीछे से मुझे पुकारा तो मुड़ देखा कि वह पान वाला ही पुकार रहा है मुझे।
"वे पैसे दिखाइएगा ज़रा।" पास आते ही उसने कहा तो लगा कि यह शायद ज़्यादा पैसे दे गया है। मैंने जेब से ज्यों-के-त्यों निकालकर उसे दे दिये वे पैसे तो उसने उनमें से एक सिक्का उठाकर अपनी सन्दुक़ची में रख लिया।
मैंने सोचा, ठीक है, ज़्यादा ही दे दिये थे इसने कुछ पैसे, अच्छा ही हुआ इसको ध्यान आ गया। नहीं तो खामखा बेचारे को नुक़सान होता, पर तभी उसने अपनी सन्दूकची में से निकालकर एक सिक्का उनमें रखा और पैसे मुझे लौटा दिये।
मैंने उन्हें फिर ज्यों-का-त्यों जेब में रख लिया और पूछा, “क्यों, क्या बात थी भाई?"
"कुछ नहीं बाबूजी, एक चवन्नी खोटी थी उनमें, वह बदल दी है।"
मैं चल पड़ा और तब आप ही आप उसने कहा, “ऐसे आदमी से भी क्या बेईमानी करना, जो न देखे, न गिने !"
अब यह रहस्य मेरे सामने खुला पड़ा था कि उसने मुझे जान-बूझकर खोटी चवन्नी दी, धोखा देने का प्रयत्न किया, पर मैंने उसका पूरा विश्वास किया कि न ख़रा-खोटा देखा, न गिनती की। मेरे इस विश्वास ने उसके मानस को झकझोरा। यह झकझोर इतनी प्रबल थी कि वह उसे सह न सका और स्वयं बुलाकर उसने वह खोटी चवन्नी वापस ले ली।
विश्वास की यह विजय, मानवता का यह संस्पर्श मेरे तन-मन पर छा गया और लगा कि उसने मुझे केवड़ा पड़ी मीठी शिकंजबी पिलायी है अभी-अभी और उसकी सुगन्ध और स्वाद से मेरा अन्तर भर-भर उठा है।
"क्यों भाई, फिर तमने पहले ही यह खोटी चवन्नी मुझे क्यों दी थी?" मैंने उसे तराजू पर चढ़ाया।
“और क्या करें बाबूजी? गाहक लोग उस्तादी से हमारे सिर मढ़ जाते हैं खोटे सिक्के और सफ़ाई से हम उनकी ही जेब में उतार देते हैं उन्हें।" बिना झिझके वह खुल पड़ा, “इन्हें मैं अपनी दूकान में तो कुछ बनाता ही नहीं।"
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
- मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
- रहो खाट पर सोय !
- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
- लीजिए, आदमी बनिए !
- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में