कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
|
2 पाठकों को प्रिय 335 पाठक हैं |
सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
“अपनी जगह ठीक है तुम्हारी बात।" मैंने उससे कहा और लौट पड़ा, पर क्या मेरी बात का यह मतलब था कि मैं उसके कार्य का समर्थक हूँ, उसे ठीक मानता हूँ? मेरा मतलब था यह कि मैंने मान लिया था कि वह पानवाला मूल में बेईमान नहीं है-सिर्फ दूसरों के द्वारा अपने साथ किये बेईमाने को बेईमाने से बचाने में विश्वास करता है। कुश्ती की भाषा में यह विरोधी के दाँव को उसी के दाँव से काटना है।
"-पर मैंने तो इसके साथ कोई बेईमानी नहीं किया था, फिर इसने मेरे साथ क्यों बेईमानी की?" यह एक उपप्रश्न आया, पर मन के पास उसका समाधान जैसे पहले ही तैयार था, "इसके लिए तुम, ये, वे, कोई अलग-अलग व्यक्ति नहीं-एक ही व्यक्तित्व है गाहक ! बस गाहक ने इससे बेईमानी की, इसने गाहक की हजामत बना दी। गाहक गाहक सब एक, पर आज जब इसकी दुकान पर एक ऐसा गाहक आया, जिसके विश्वासी व्यवहार से सिद्ध हुआ कि यह गाहक तो है, पर बेईमान नहीं तो इसके भीतर की सहज ईमानदारी ने कहा, बेईमान के साथ बेईमानी तो ठीक है, तेरा नियम है, पर यह तो आज तू ईमानदार के साथ बेईमानी कर रहा है; और बस उसने मुझे स्वयं बुलाकर खोटी चवन्नी बदल दी।"
लौटते-लौटते मैंने सोचा, यह तो बेईमान के ईमान का ही दर्शन हुआ आज और बस मैं आनन्द से भर गया, पर अपने पलंग पर लेटते-लेटते मेरे अन्तर की आँखों में घूम गया पेशावर का क़िस्साखानी बाज़ार और 23 अप्रैल 1930 की सुबह !
तब भारत गुलाम था और गुलामी के विरुद्ध एक बार सारा देश उभर उठा था। शराब और विदेशी वस्त्रों की दूकानों पर स्वतन्त्रता के स्वयंसेवक धरना देते, लाठी चार्ज के बीच भारत माता की जय बोलते, जुलूस निकालते, आज़ादी के तराने गाते, जलसों में हुंकारते और इनक़लाब ज़िन्दाबाद के नारों से आकाश को गँजा देते। सरकार उन्हें गिरफ्तार करती तो मालाएँ पहने और हजारों की भीड में घिरे-घिरे वे यों जेल जाते. जैसे अपनी ही शादी में जा रहे हों !
अँगरेज़ सरकार देश के इस नये उभार से चिन्तित थी, पर उन्हीं दिनों सरहद के सूबे में जो कुछ हो रहा था, उससे तो वह बहुत ही परेशान थी। वहाँ सरहदी गाँधी ख़ान अब्दुल गफ्फार खान के तपस्वी नेतृत्व ने खूनी पठानों को अहिंसा का सर्वोत्तम सिपाही बना दिया था और वे लालकुरती दल के रूप में स्वतन्त्रता के युद्ध में कूद पड़े थे।
23 अप्रैल से पेशावर में भी शराब और विदेशी कपड़े की दुकानों पर धरना आरम्भ होनेवाला था और इसमें अँगरेज़ सरकार को अपनी मौत का वारण्ट दिखाई दे रहा था। देशव्यापी यह धरना, सरहद में उसके लिए उस अजगर की तरह था, जो आदमी को अपनी कुण्डली में फँसा, अपनी ताक़तवर ऐंठन से उसकी हड्डी-पसलियाँ तोड़ डालता है। उसे भय था कि यह आग कबायली इलाक़ों में फैल गयी तो बस फिर होली ही होली है। वह जानती थी कि मौत के खिलाड़ी पठान जेल और लाठी से डरनेवाले नहीं, इसलिए उसने आग से आग को बुझाने का फैसला कर लिया था और गढ़वाली पलटन को आज क़िस्साखानी बाज़ार में ला खड़ा किया था !
अब एक तरफ़ थे गढ़वाली जवान-अपनी राइफलों से लैस-लब्बैक और दूसरी तरफ़ लालकुरती पठान-अपनी बलिदानी भावना से सजे-धजे। काँग्रेस का तिरंगा झण्डा आकाश में फहरा रहा था। चारों ओर बाजारों में, छतों पर, खिड़कियों में दर्शक ही दर्शक थे। एक अजीब वातावरण था, जिस में सनसनी थी, उल्लास था, कुतूहल था, दर्प था, हुंकार थी !
कम्पनी का कमाण्डिग-ऑफ़ीसर कैप्टेन रिकैट तना खड़ा था। उसकी परवाह न करके स्वतन्त्रता के स्वयंसेवक गढ़वाली सिपाहियों के पास आ-आकर उन्हें देश की बात समझा रहे थे। यह देखकर रिकैट चिल्लाता, "हटाओ इनको यहाँ से !" और तब लम्बी-लम्बी सीटियाँ बजाता और चिल्लाता, "भाग जाओ, भाग जाओ !" पर उसकी आवाज़ और सीटी, जैसे वहाँ कोई भी नहीं सुन रहा था !
|
- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
- मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
- रहो खाट पर सोय !
- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
- लीजिए, आदमी बनिए !
- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में