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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।


मीरा बन्धनहीन, मर्यादाहीन, स्वच्छन्द साधनी और राणा आदेश, नियन्त्रण और मर्यादा का पुजारी-दोनों में संघर्ष स्वाभाविक था और वह आया।

राणा सीतापति राम का वंशधर, जिसने वर्णाश्रम व्यवस्था के विरुद्ध तप करते शूद्र का सिर तलवार के एक ही वार में धड़ से अलग कर दिया और प्रेम-पगली मीरा हरिजन सन्त रैदास की शिष्या-'गुरु मिलिया रैदासजी, दीनी ज्ञान की गुटकी।'

राणा सामाजिक बन्धनों का दास, जिसके लिए रानी का स्वरूप यह कि उसे सूर्य भी न देख सके और मीरा इन सब बन्धनों से मुक्त, वन-उपवन साधुओं के साथ कृष्ण-भक्ति में नाचती-गाती एक उन्मुक्त विहंगबाल !

राणाजी अब न रहूँगी तोरी हटकी,
साधु संग मोहिं प्यारो लागे लाज गयी घूँघट की।
सतगुरु मुकुर दिखाया घर का नाचूँगी दे-दे चुटकी।

राणा के दिमाग में रानी का चित्र है-सोने-रत्नों से जड़ा, रेशम से लकदक और महलों में बन्द, पर मीरा का श्रृंगार है रुद्राक्ष की माला, चन्दन-चर्चित ललाट और दिन-रात के बन्धनों से भी स्वतन्त्र।

“महल किला राणा मोहि न चाये सारी रेशम पट की।
हुई दिवानी मीरा डोले केश लटा सब छिटकी।।''

दीवानी मीरा की घर-घर चर्चा है। इस चर्चा में निन्दा का विष ही घुला है, अमृत की कहीं एक बूंद नहीं, फिर राणा उस राम का वंशधर, लोक-लाज और लोक-संग्रह के नाम पर जिसने निर्दोष पत्नी को वनवास दे दिया। वह अपने वंश की यह निन्दा कैसे सहे? उधर मीरा की कोई निन्दा करे या स्तुति उसे क्या। उसके लिए तो स्पष्ट दिशा है- “मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई !'' जिसके लिए दूसरा कोई है ही नहीं, वह लोक-लाज किससे करे !

राणा की बहन ऊदाँबाई मीरा को समझाती है :
"भाभी मीरा, साधाँ को संग निवार, सारो शहर थारी निन्दा करै।"

मीरा बिलकुल अपने में स्पष्ट है :
“बाई ऊदाँ करै तो पड़या झक मारो मन लाग्यो रमता राम तूं।"

ऊदाँबाई लोक-निन्दा का दूसरा पक्ष लेती है :
“भाभी मीरा, गढ़ चित्तौड़ राणोजी लाजै गढ़रा राजवी।"

अरे भाभी, तुझे अपनी निन्दा की चिन्ता नहीं है तो कम-से-कम इस महान् चित्तौड़ और उसके राणा की तो तू चिन्ता कर, पर मीरा क्या अपने प्रति कहीं अस्पष्ट है कि वह शरमाये :

“बाई ऊदाँ, ताज्यो-ताज्यो चित्तौड़ राणाजी ताज्यो गढ़रा राजवी।"

अरे बावली ऊदाँ, मैंने तो अपने कर्मों से इस तेरे चित्तौड़गढ़ और उसके राणा दोनों को तार दिया है।

अब नारी ने नारी के कोमल मर्म पर उँगली रख उसे टटोला। ऊदाँबाई कहती है :

'भाभी मीराँ, राणाजी रो बचन न लोप, उन रूठ्याँ भीड़ी कोऊ नहीं !"

भाभी, राणा की बात न टाल, उनके रूठने पर तेरी कोई रक्षा नहीं कर सकता ! ऊदाँ बेचारी नहीं जानती कि मीरा का रक्षक तो सदैव मीरा के साथ है :

“ऊदाँ, रमापति आवै म्हारै भीड़ अरज करूँ छै तासू बीनती।"

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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