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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।

दो


आदमी का मन भी अजीब चीज़ है। सोच रहा था अठन्नी की बात और जा पहुँचा लक्सर स्टेशन। 1935-36 की बात है। एक मुसाफ़िर स्टेशन मास्टर के पास आया। उसकी गाड़ी छूट गयी थी। रातभर उसे स्टेशन पर रहना था, पर उसके पास पाँच हज़ार रुपये और इतने का ही ज़ेवर था। स्टेशन मास्टर ने उसे भरोसा दिलाया और वेटिंग रूम में सुला दिया। साथ ही एक भंगी को इसके लिए भी तैयार कर दिया कि वह रात में दो बजे के बाद उसे क़त्ल कर दे!

स्टेशन मास्टर का लड़का सिनेमा देखकर सहारनपुर से लौटा तो पिता के डर से घर न जा, उसी वेटिंग रूम में घुस आया और उसने उस मुसाफ़िर को बाहर निकाल दिया।

ठीक समय पर भंगी आया और अपना काम कर गया, पर मुसाफ़िर के पास न रुपये निकले, न ज़ेवर। स्टेशन मास्टर ने आकर देखा तो उसका लड़का मरा पड़ा था और वह मुसाफ़िर बाहर के टी स्टाल पर चाय पी रहा था!

वही खोटी अठन्नी की बात कि स्टेशन मास्टर के मन में एक बुरी वृत्ति पैदा हुई। उसने उस बुरी वृत्ति से दूसरे को हानि पहुँचाने के लिए उसे बाहर फेंका, पर उसने बाहर आनेवाले का कोई नुक़सान न कर, स्वयं उसका ही गला दबोच लिया; यानी खोटी अठन्नी फिर अपनी ही जेब में लौट आयी।

मुझे याद आ गये मेरे मित्र डॉक्टर व्रजमोहन गुप्त। एक बार उन्होंने बातों-बातों में बताया था कि स्वामी विवेकानन्द ने अपनी एक पुस्तक में बड़े मार्के की बात लिखी है कि बिजली चौकोर चलती है और वह जहाँ से चलती है, चारों ओर घूमकर अन्त में वहीं आ टिकती है। यही हालत हमारी मनोवृत्तियों की है। मान लीजिए रामू के हृदय में श्यामू के प्रति क्रोध, घृणा या ईर्ष्या की प्रवृत्ति पैदा हुई। वह प्रवृत्ति श्यामू को स्पर्श करेगी, प्रभावित करेगी, पर लौटकर रामू के हृदय में ही आ समाएगी। इस प्रकार उस वृत्ति से श्यामू का कम और रामू का ही अधिक नुक़सान होगा।

यह कितनी विचित्र, पर महत्त्वपूर्ण बात है कि हम जब दूसरे का अनिष्ट करने के लिए उफनते हैं तो अपना ही नाश कर रहे होते हैं और समझते यह रहते हैं कि हम पूरी तरह सुरक्षित हैं।

भावना को भाषा का रूप देते हुए मैंने सोचा, "किसी के लिए भी अपने मन में कड़वाहट को, हिंसा-वृत्ति को, जन्म न लेने दो; भले ही वह तुम्हारा शत्रु हो, क्योंकि वह हिंसावृत्ति यदि शत्रु का नाश करेगी तो तुम्हारा सर्वनाश करेगी; और वह भी इस तरह कि तुम उसे पहचान भी न पाओ !"

मेरे मन में तभी एक चमत्कारी विचार आया तो क्या अपने किसी विरोधी को क्षमा कर देना, उस पर कृपा करना नहीं, किन्तु अपने को क्रोध और प्रतिशोध की प्रचण्ड वृत्तियों में झुलसने से बचाना ही है?

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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