कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
तीन
उनकी मृत्यु हुए कई साल हो गये, पर मुझे लगा कि ठाकुर चन्दनसिंह कहीं से मेरे पास आ बैठे हैं। कभी वे रुस्तमे-हिन्द जैसे थे, पर आज हड्डियों के ढाँचे पर खाल मढ़ी थी। पहले जो चेहरा कपूर था, आज तवा हो रहा था। उनके होठ आज भी हँसते थे, पर यह हँसी भी कुछ हँसी थी ! पहले वे हँसते तो लगता कि मोतियों की थैली खुल गयी और आज; जैसे वे अपने रोने को खुद ही रँग रहे हों !
देखकर जी धक् रह गया- 'यह आपको क्या हो गया ठाकुर साहब?" मैंने पूछा, तो बोले- 'मैं अपनी जलायी आग में झुलस गया भाई साहब ! आपको याद होगा कि हमारे गाँव में एक बार ननकू और बुन्दा में मनमुटाव हो गया। दोनों के खेत पास-पास थे। फ़सल सोना हुई खड़ी थी। ननकू एक दिन को कहीं रिश्तेदारी में गया तो बुन्दा ने उसके खेत में पतंगा फेंक दिया और बुराई से बचने को गाँव की चौपाल पर आ बैठा। उधर हवा पलटा खा गयी और आग की लपटें बुन्दा के खेत में आ खिलीं।
यही हाल मेरा हुआ। मेरा छोटा भाई बड़ा होनहार था। उसने बड़ी तरक्क़ी की। ऑनरेरी मजिस्ट्रेट हो गया और बड़े-बड़े अफ़सर उसके घर आने लगे। मुझसे यह बरदाश्त न हुआ, ईर्ष्या मेरे भीतर दहक उठी। बात यह हुई कि लोग उसे मेरा छोटा भाई न कहकर, मुझे उसका बड़ा भाई कहने लगे। इसे मैंने अपना अपमान समझा और मेरे भीतर क्रोध प्रचण्ड हो उठा, पर भला मैं उसका क्या बिगाड़ सकता था। वह तो अपने गुणों के कारण नाम पा रहा था।
मेरे भीतर हर समय आग जलती और मैं हरेक से खाता-फाड़ता बोलता। इससे जो मेरे थे, वे भी गैर हो गये। मेरी स्त्री मुझे छोड़कर अपने पिता के घर चली गयी और लड़का आवारा हो गया। मैं हर समय भाई को मिटाने के मनसूबे बाँधता, पर खुद मिटता जाता। अन्त में मुझे टी. बी. हो गयी, छोटे भाई ने मेरी बहुत सेवा की, पर उस सेवा से भी मुझे शान्ति न मिली। मैं नौकर को लालच देकर अपना जूठा दूध भाई को पिला देता, जिससे उसे भी टी. बी. हो जाए, पर भाई, उसके भीतर शान्ति थी, वह लहलहाता रहा; मेरे भीतर आग थी; मैं जलता रहा और एक दिन सचमुच जल जाऊँ, अब इसकी तैयारी है !"
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
- मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
- रहो खाट पर सोय !
- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
- लीजिए, आदमी बनिए !
- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में