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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।


गीदड़-गुरु का चेला, कौन गीदड़-गुरु? सवाल सुना तो चचा बोले, “अरे आप गीदड़-गुरु को भी नहीं जानते, तभी तो बड़े साहब से डरे यहाँ पडे हैं तकिये में सिर दिये; वरना एक साहब क्या. आप दो की यों फिरकी बना दें।" अच्छा, तो फिर सुनिए गीदड़-गुरु की कहानी :

गीदड़ ने जंगल में देखा कि एक हाथी मरा पड़ा है। उसने दाँत मारे, पंजे चलाये, पर हाथी की खाल थी, उसका दाँव न बैठा। स्वादिष्ट भोजन का भण्डारा सामने, मगर यह कुण्डी कैसे खुले?

उधर से आ निकला एक शेर ! गीदड़ ने उससे कहा, “मामा, मैंने तुम्हारे लिए यह हाथी मारा है, लो आओ भोग लगाओ।"

शेर ने कहा, “बेटे, मैं दूसरे का शिकार नहीं खाता, मेरा प्रसाद समझकर तुम्हीं आनन्द करो।"

गीदड़ का वार ख़ाली गया, पर तभी उधर से आ निकला एक चीता। गीदड़ ने कहा, “यह हाथी बड़े मामा ने मारा है छोटे मामा, और पहरे पर मुझे बैठा, नहाने गये हैं वे, पर तुम बहुत भूखे मालूम होते हो, इसलिए एक तरफ़ से थोड़ा-सा तुम खा लो। मैं दूर बैठा देख रहा हूँ, मामा आते दिखाई देंगे तो तुम्हें कह दूंगा, तुम भाग जाना।"

चीता लोभ में आ गया, पर अपने मज़बूत पंजों से हाथी की खाल को चीर, वह मुँह मारने को ही था कि गीदड़ ने दौड़कर कहा, “भागो, मामा आ रहे हैं।"

चीता भाग गया और यों गीदड़ ने कई दिन खूब भोग लगाया। ये हैं गीदड़-गुरु और यह है उनका गुरुमन्त्र ! कुछ समझे? अरे भाई, समझना इसमें क्या है, बस जिसके हाथ में आपके मसले की बागडोर है, उसे चारों तरफ़ अ को आ से आ को इ से इस तरह तोप दो कि वह आप से बाहर न जा सके।

बस फिर आप भी मेरी फिलासफ़ी के क़ायल हो जाएँगे और कोई आपसे अगर पछेगा कि भाई, आपके बारे में अव क्या होगा तो आप चटाक से कहेंगे-अजी, इसमें होना-हवाना क्या है?

अब भी समझ में कुछ कसर रह गयी हो तो यों समझ लीजिए कि मेरी फिलासफ़ी का सार यह है कि कोई मसला इतना बड़ा नहीं होता कि हल न हो सके, और सच तो यह है कि हर मसले के साथ ही उसका हल भी रहता है, पर मुसीवत तो यह है कि हम मसले के भय से इतने डर जाते हैं कि उसे न खुलने वाली गाँठ समझ लेते हैं। होना-हवाना क्या है इस फ़िलासफ़ी की घोषणा है कि कोशिश करने से पहले ही उसकी कामयाबी तय है, तो मत लीजिए नाकामयाबी का मनहस नाम और समझ लीजिए कि हर मसला हल होने के लिए है !

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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