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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।


लोकजीवन में इस सत्य को एक कहावत में यों कहा गया है- 'आगे दौड़, पीछे चौड़।'

इतिहास में भी ऐसे वीरों की कथाएँ सुरक्षित हैं जो जीतते गये और बढ़ते गये, पर जब आख़िरी किनारे पर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि उनके गले में विजय का हार नहीं, गुलामी का तौक पड़ा है और उनके हाथों में विजित देशों के विजय-पत्र नहीं, हथकड़ियाँ डाली जा रही हैं। क्यों? क्योंकि वे जीते देशों की व्यवस्था का अधूरा काम छोड़कर आगे बढ़ गये !

मैं जीवन की सरल बात कहने बैठा था. पर लगता है कि कछ बोझल हो चला हूँ तो आइए अपने मित्र श्री खन्ना और उनकी पत्नी श्रीमती खन्ना से आपका परिचय कराऊँ। श्री खन्ना एक ईमानदार, परिश्रमी और भले राज्यकर्मचारी तो श्रीमती खन्ना एक सुरुचि-सम्पन्न, सहृदय गृहिणी। एक मध्यम श्रेणी का छोटा-सा परिवार, पर इतना व्यवस्थित कि देखें तो देखते ही रह जाएँ-हँसी में मित्र लोग कहते हैं, “श्रीमती खन्ना झाडू से नहीं बुहारतीं, जीभ से फ़र्श चाटती हैं।" वे अपना घर ऐसा रखती हैं कि जैसे यह म्यूज़ियम हो और इसकी चीजें बरती न जाती हों, बस देखने के लिए सजी ही रहती हों !

एक दिन पूछा, “इस व्यवस्था का रहस्य क्या है?"

श्रीमती खन्ना बोली, “जो चीज़ जहाँ की है, उसे वहीं रखने की आदत !'' और तब उन्होंने एक ताज़ा संस्मरण सुनाया, “रात खन्ना साहब एक बजे आये। उनके साथ सामान भी था। आते ही उन्होंने कपड़े निकाले, बदले और बिस्तरबन्द खोलकर जूता जूते के स्टेण्ड पर रखा, चप्पल पलंग के पास, विस्तरा भीतर की चौकी पर पहुँचाया, मैले कपड़े डोली में डाले, होल्डाल तह करके उसकी जगह रखा, फलों की टोकरी रसोई में रख आये, थर्मस खुंटी पर टाँग दिया, ट्रंक भीतर के कमरे में रखा, छतरी कोने में और यों ढाई बजे सोये।"

हम जब सुबह सोकर उठे तो घर ज्यों-का-त्यों था। दूसरे लोग ऐसे मौक़े पर यह फेंका इधर तो वह मारा उधर और कुछ पलंग के नीचे तो कुछ चारों ओर; गरज़ यह कि घर को ऐसा कर देते हैं; जैसे यहाँ से अभी-अभी राजस्थानी लुहारों का काफ़िला उठा हो !

वे बोलीं, “बस यही हमारी व्यवस्था का रहस्य है।"

मैंने कहा, "ठीक है, आप लोग खादी न पहनने पर भी इस मामले में गाँधीजी के पक्के शिष्य हैं, कभी अधूरा काम नहीं करते।" और तब मैंने उन्हें गाँधीजी का वह ईगुल वाला संस्मरण सुनाया।

खन्ना परिवार के विरुद्ध है मेरा एक आत्मीय और उसकी बहू रानी। दोनों सुन्दर हैं, पर घर का सौन्दर्य दोनों को पसन्द नहीं-उनका घर देखकर ऐसा लगता है कि वे आज ही इस घर में आये हैं और उनका सामान किसी दसरे घर से लाकर अभी यहाँ पटका गया है- यहाँ यह पड़ा ह ता वह। कभी-कभी मैं उसे व्यवस्थित करा देता हूँ, पर यह रेते का राजमहल उसी दिन से छीजने लगता है और दो-तीन दिन में ही फिर अपना पुराना स्वरूप ले लेता है।

क्या उसके पास जगह की कमी है? ना, यह स्वभाव की बनावट है, जिसे मैं मानसिक दरिद्रता कहा करता हूँ।

विकास प्रेस के बरामदे का पार्टीशन करके बनायी गयी मेरी अपनी कोठरी है-नौ बालिश्त चौड़ी, नौ बालिश्त लम्बी। इसमें मेरा पुस्तकालय है, कार्यालय है, पूजा-मन्दिर है, शयन-कक्ष है, बैठक है, स्टोर है और भी बहुत कछ है। समाज के अत्यन्त प्रतिष्ठित नागरिक, जो धनपति हैं, ऊँचे राज्यकर्मचारी हैं, मिनिस्टर-डिप्टी-मिनिस्टर हैं और बड़े-बड़े भवनों में रहते हैं, अकसर इस कोठरी में आतिथ्य ग्रहण करते रहे हैं। मैंने बार-बार देखा है कि वे आकर पहले भौचक हो इस कोठरी में चारों ओर आँखें घुमाते हैं और तब कहते हैं कि वाह साहब, यह आपकी कोठरी तो खूब है। मैं स्वयं अपनी कोठरी पर गर्व करता हूँ कि उसमें एक पूरा जीवन है, वातावरण है, व्यवस्था है, सौन्दर्य है।

मैं जानता हूँ कि आपका घर भी अव्यवस्थित रहता है और आप चाहते हैं कि वह खन्ना परिवार या मेरी कोठरी की तरह व्यवस्थित रहे तो अधूरा काम करने की बुरी आदत छोड़िए और पूरा काम करने की अच्छी आदत डालिए।

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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