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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।


“परदा? बहाना एक परदा है !"

जी हाँ, बहाना एक परदा है, पर घूँघट या बुरके का परदा नहीं; सचाई और मनुष्य के बीच का परदा है यह। नहीं समझे आप। समझें भी कैसे। आख़िर आपकी अक्ल सीमेण्ट की चादर-सी नहीं, लाल क़िले की दीवार-सी मोटी है। अरे भाई, मनुष्य जब सचाई का सामना नहीं कर पाता, तो बहाने की, परदे की, आड़ लेता है।

लो, यों समझो कि रामलाल ने झण्डासिंह से सौ रुपये हाथ उधार लिये कि 6 फ़रवरी को लौटा दूंगा। आज है 6 फ़रवरी। झण्डासिंह अपने रुपये माँगने रामलाल के घर आया, पर रुपयों का अभी यहाँ प्रबन्ध नहीं। अब सचाई यह है कि रामलाल झण्डासिंह से अपनी मज़बूरी कहे और कुछ समय रुकने की प्रार्थना करे, पर इस सचाई के सामने आते उसे आती है झेंप, तो झण्डासिंह के पुकारने पर वह कहलवा देता है, वे घर में नहीं हैं। झण्डासिंह लौट जाता है और यों रामलाल सचाई के सामने आने से बच जाता है। कहिए बहाना एक परदा है या नहीं? तो अब आयी आपकी समझ में मेरी बात? सच बात यह है कि जितनी देर में दिल्ली के चाँदनी चौक से राजपूताने का ऊँट गुज़र आता है, उतनी देर में आपकी समझ में बात का प्रवेश होता है। फिर भी भाई, आप आप हैं और हम हमी हैं।

“अपने मकान पर दुश्मन भी आ जाए तो मित्र हो जाता है, यह हमारे देश का पुराना संस्कार है, पर आजकल बहुत बार यह भी होता है कि मित्र यदि अपने मकान पर आ जाए, तो वह लौटते-लौटते दुश्मन हो जाता है।"

"यह कैसे?"

"कैसे इसमें क्या थी, साफ़ बात है। समझ लीजिए कि शर्माजी एक सार्वजनिक कार्यकर्ता हैं। प्रातःकाल चाय पीकर घर से निकले थे कि नौ बजे तक लौट आएँगे और आकर खाना खाएँगे, पर आर्यसमाज के वार्षिक उत्सव के कार्य में ऐसे उलझे कि दो बज गये। वहाँ से चले, तो नेत्र-चिकित्सा-कैम्प वालों ने पकड़ लिया और यों शाम को छह बजे घर में घुसे। आते ही श्रीमतीजी का कुछ गरम और कुछ गम्भीर भाषण सुना और तब ज़रा पलंग पर तिरछे हुए, पर अभी पूरी तरह पैर खोले भी न थे कि बाहर से आवाज़ आयी-शाजी ! उन्होंने चाहा कि वे यह आवाज़ न सुनें पर यह अकेली हो तभी तो वे इसे न सुनें। पुकारने वाले ने और भी ज़ोर से कहा-शर्माजी, और तुरत दोहराया-अरे भाई शर्मा साहब हैं?

सत्य बड़ी चीज़ है और इस समय सत्य यह है कि शर्मा साहब यहाँ हैं। इस सत्य के साथ ही यह भी सत्य है कि वे दिन-भर की सेवाओं के ही कारण बहुत थके हुए हैं और इसे भी संसार सत्य ही मानता है कि थके हुए आदमी को आराम करने का, सुस्ताने का पूरा अधिकार है।

इतने सत्यों को इकट्ठा कर शर्माजी ने पुकारने वाले से कहलाया कि मैं कल मिलूँगा आपसे, इस समय बहुत थका हुआ हूँ।

जानते हैं आप, क्या होगा इसके दूसरे दिन? एक जगह आप सुनेंगे-अरे भाई, अब तो शमां साहब बहुत बड़े आदमी हो गये हैं। दूसरी जगह सुनाई देगा-अँगरेज़ तो चले गये हिन्दुस्तान से, पर शर्मा साहब अब भी अँगरेज़ों की तरह समय निश्चित करके तब मुलाक़ात करते हैं। तीसरी जगह यह भी कि क्या ठीक है भैया, शर्मा साहब के दिमाग का, अपने को पूरा लाट साहब समझते हैं।

कहिए, घर आने पर दोस्त ही दुश्मन हो गये या नहीं? इस बीमारी से बचने का एक ही उपाय है कि बाहर से किसी ने पुकारा कि शर्माजी हैं और तुरंत श्रीमतीजी ने उत्तर दिया कि जी, वे घर में नहीं हैं। बस आने वाले पण्डितजी हों या बाबूजी, शेखजी हों या सरदारजी, खरामा-खरामा लौटते नज़र आएँगे और न कहीं नाराज़ी का नाम, न लन्तरानियों के लच्छे। यह बहाना भी हकीम लक़मान का ही पूरा नस्खा है।

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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