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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।


हाँ, नुस्खा तो यह अचूक है, पर इसमें ज़रा-सी सावधानी की आवश्यकता है। मेरे पिता एक वैद्य थे। उनके पास एक रोगी आया, जिसकी आँखें दुःख रही थीं और दाँतों में दर्द था। उन्होंने उसे दोनों की दवाएँ दे दीं, पर उस मूर्ख ने आँखों की दवा तो दाँतों में मल ली और दाँतों की दवा आँखों में डाल ली। उसे जो मज़ा इससे आया होगा उसे आप खुद ही समझ सकते हैं।

यही हालत इस लुक़मानी नुस्खे की है। इसमें जहाँ ज़रा-सी चूक हुई कि बस गुड़-गोबर एक हुआ। बाहर से किसी ने आवाज़ दी कि पिताजी ने अपने छोटे लडके को धीरे से समझाया, बेटा, कह दे कि पिताजी घर में नहीं हैं। सरल बालक झूठ बोलना क्या जाने। वह ज़ोर से कहता है, मेरे पिता कहते हैं कि वे घर में नहीं हैं। अब बच्चे पर पड़ रही हैं घुड़कियाँ, जिससे बह चले हैं उसके आँसू और घर भर गया है उसके चीत्कार से। वाहर खड़े सज्जन इनके बारे में जो सोच रहे हैं, वह हम भी समझ सकते हैं और आप भी। कहिए ज़रा-सी चूक ने अचूक नुस्खे को बेकार कर दिया या नहीं?

एक बार एक शाइर साहब अपने किसी शाइर दोस्त से मिलने गये। मकान के सामने खड़े होकर लगायी आवाज़ और लगे इन्तज़ार में ऊपर को देखने। बेगम साहब ने दीवार के ऊपर से जो नीचे को झाँका तो शाइर साहब ने उन्हें ताक लिया। बेगम साहबा पीछे हट गयीं और कहा, “जी वे घर में नहीं हैं !"

शाइर साहब ने कहा, “अच्छा हम फिर आवेंगे", पर चलते-चलते उनके दिल में आया कि इतनी ऊँची है यह दीवार और उससे इतनी और ऊँची है हमारे दोस्त की बीवी, इसका मतलब यह हुआ कि बेगम साहबा क़रीब सात फ़ीट लम्बी हैं। शाइर साहब को जो आयी फुरैरी तो एक कोयला उठाया और दीवार पर लिख मारा :

तुले शबे फुकरत से भी दो हाथ बड़ी है।

अर्थात् वह बेचैनी की रात से भी दो हाथ बड़ी है।

उनके जाने के बाद ये शाइर साहब आये, तो देखा कि दीवार पर यह लाइन लिखी है। बीवी से पूछ-ताछ की तो सब माज़रा समझे और सोचने लगे कि आज तो यह बड़ा तगड़ा झापड़ पड़ा। आखिर शाइर थे वे भी। आयी जो फुरैरी, तो उन्होंने उस लाइन के नीचे एक दूसरी लाइन यों लिखी :

वो जुल्फ़े मसलसल जो तेरे रुख पै पड़ी है।

यानी बेचैनी की रात से भी वह जुल्फ़ दो हाथ बड़ी है, जो तेरे चेहरे पर लहरा रही है।

शाइर साहब घूम-घामकर लौटे तो देखा कि अब एक की जगह वहाँ दो लाइनें हैं और उन्हें पढ़ा, तो मुसकराकर रह गये। कहने का मतलब यह कि सब बलाएँ भूत के सिर, यह नुस्खा अचूक है कि वे घर में नहीं हैं, पर इसमें ज़रा-सी चूक से बचने की ज़रूरत ज़रूर है।

अच्छा आप बहुत बाल की खाल निकालते हैं और बड़े खोजी बनते हैं, तो मेरे एक प्रश्न का उत्तर दीजिए। प्रश्न यह है कि क्या यह सम्भव है कि आपके घर पर कोई आपसे ही यह कहे कि आप घर पर नहीं हैं और आपको इसका यक़ीन आ जाए?

मैं जानता हूँ आप इस पर 'नहीं' कहेंगे और इस प्रश्न को ही बेसिर-पैर का बतलाएँगे, पर मैं कहता हूँ कि यह सम्भव है और सौ फ़ी-सदी सम्भव है। फिर यह कोई मैं अपनी तरफ़ से गढ़कर थोड़े ही कह रहा हूँ। यह तो भाई साहब, विश्व-विख्यात लेखक स्वीट मार्डेन ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है।

ओहो, इसमें शब्द-समूहों के अम्बार खड़े करने की क्या बात, मेरी पूरी बात तो आप सुन लें। एक प्रोफ़ेसर साहब बाग़ में बैठे विचारों की किसी गुत्थी में उलझ रहे थे। रात गहरी हो चली तो अपने घर आये, पर रास्ते में भी उलझे ही रहे और घर जाकर दरवाजा थपथपाया तो उलझे-ही-उलझे। नौकरानी नयी आयी थी। उसने प्रोफ़ेसर साहब को नहीं पहचाना और ऊपर से कहा, साहब घर में नहीं हैं। प्रोफ़ेसर साहब ने यह सुना और सुनकर फिर बाग़ में लौट आये। वहाँ पहुँचकर विचारों की गुत्थी सुलझी तो याद आया कि ओह हम तो अपने ही घर गये थे। अब सोचिए कि इस धरती ने भी कैसे अजीब-अजीब जीव पैदा किये हैं। नौकरानी ने कहा कि साहब घर में नहीं हैं और साहब ने भी मान लिया कि हाँ वे घर में नहीं हैं।

तो, सब संकटों से बचने का उपाय है घर में नहीं हैं। घर एक क़िला है, जिसमें कोई यों ही नहीं घस सकता। आप घर में हैं और कहा जा रहा है कि घर में नहीं हैं, फिर किसकी ताक़त है कि आपको घर में बताए। नन्हे बच्चे यह सब देखते हैं और झूठ बोलना सीखते हैं। झूठ की पहली छाप यहीं से उनके मन पर पड़ती है। इसलिए यह बहाना अच्छा है, फिर भी एक राष्ट्रीय अपराध है। हमारा कर्तव्य है कि इसका उपयोग न करें और हमारे मित्रों का कर्तव्य है कि इसके उपयोग का हमें सहारा न लेना पड़े।

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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