कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
दो
मुझे याद आ गयी, अपने ही पिछले जीवन की एक घटना। नहाकर उठा तो बनियान मैला और मैला बनियान पहनने का मतलब हुआ मैला मन।
"प्रभाजी, साफ़ बनियान दो !'' मैंने पत्नी से कहा तो मज़बूरी सामने आयी, “कल सोचा था, कपड़े धोऊँगी, पर तबीयत ख़राब हो गयी। पहन लो अब तो इसे ही, दोपहर को दूसरा बदल लेना।" पर देह उसे अपने में लेने को तैयार न हुई, “ना-ना यह नहीं, साफ़ बनियान दो !"
उन्हें सूझी मज़ाक़ और मज़ाक़ की तो बात ही है कि रईस-आज़म के घर में कुल दो बनियान और माँग रहे हैं तीसरी। वे अपना खादी-छींट का धुला जम्फर ले आयीं, “लीजिए हाज़िर है !"
इस मज़ाक़ में मुझे कोई मज़ाक़ न लगा, कुरते के नीचे जैसा बनियान वैसा जम्फर। मैंने उसे गले डाला और विद्यालय चला गया, पर अभी रघुवंश का पाठ आरम्भ ही किया था कि ससुराल का तार-“पहली गाड़ी से आइए !"
पाठ बन्द और मैं स्टेशन पर। स्टेशन से गाड़ी में और गाड़ी से ससुराल के द्वार-श्वसुरगृहनिवासः स्वर्गतुल्यो नराणाम्-तो साक्षात् स्वर्ग में। आवभगत हुई, छोटे साले के सम्बन्ध की बात है, यह बैठते-बैठते सुना, पर दशहरे के दिन कि सुबह ठण्डी फुरैरी तो दोपहर को गुर्राती-सी धूप। मन में चाह, हाथों का सहारा, दिमाग़ बातचीत में, बस कुरता उतारा और खूटी पर उसे लटका, जो फिर कुरसी पर तो हा-हा, हू-हू और 'वाह क्या कहने' के साथ बड़े साले साहब का यह रिमार्क भी कि बस साड़ी की कसर है पण्डितजी !
बात कुछ नहीं, वही जम्फर का मामला और मैं झेंप की रमक में। सोचा कुरता पहन लूँ, पर चिड़िया के उड़ने पर निशाना साधने में लाभ? बस मैं अपनेआप में स्वस्थ और हँसतों के नेता अपने बड़े साले साहब पर यह करारा वार, “जनाब, हज़ार आदमियों के सामने आप ने अपनी बहन का हाथ मेरे हाथों में दिया था। फिर मैंने उनका जम्फर एक दिन के लिए ले लिया तो आप पुलिस में रपट क्यों लिखा रहे हैं !"
हँसी करवट मारते पूरब से पच्छिम की ओर और साले साहब अब एक ठहाके के सामने; जैसे तोप का मुँह उन्हें देख रहा हो। बस वे लड़खड़ाये कि यहीं एक और चोट, “क्यों साहब, मैं उनका जम्फर छूऊँ, इसमें आप को कछ एतराज़ है क्या?''
ओह हो, एक ओर ज़ोरदार ठहाका, दीवारों को हिलाता-सा और झेंप का रुख मेरी तरफ़ से मुँह मोड़े उन्हें अपने में घेरे-घेरे !
वही बात कि भूल हो जाए, बेवकूफ़ बन जाओ, तब भी झेंपो मत-उसमें रस लो। झेंप दूसरी तरफ़ मुड़ जाएगी और आप उससे साफ़ बच जाएँगे।
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
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- मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
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- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
- लीजिए, आदमी बनिए !
- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में