कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
तीन
बात 'कामायनी' पर ही चलती रही और मैं सोचता रहा। तभी मुझे याद आ गये पण्डित कमलनाभ। वे दो बार जिला बोर्ड के मेम्बर रह चुके थे। तीसरी बार वे फिर खड़े हुए। इस बार मुक़ाबला एक धनी और प्रभावशाली आदमी के साथ था। साथ ही अपने इलाक़े में उसने बराबर कई साल से कोशिशें की थीं। इधर पण्डितजी पुराने पत्ते हो चले थे, उधर वह उगता सूरज था।
पहले ही रेले में पण्डितजी हार में थे और उनका विरोधी हारों की उम्मीद में। मैं चुनाव का इन्चार्ज था, इसलिए साढ़े दस बजे ही मैं झेंप चला। पण्डितजी से बचते-बचाते मैंने कहा, “जब साढ़े दस बजे ही डेढ बज रहा है तो डेढ़ बजे क्या होगा?"
चिन्ता तो उन्हें भी थी पर निश्चिन्त हो बोले, “तुम डेढ़ बजे की बात मुझ पर छोड़ो और एक काम करो कि इण्टरवल होने से पहले जितनी मालाएँ बनवा सको, बनवा लो और छुट्टी होते ही मैं ज्यों ही बाहर आऊँ कि लाउड स्पीकर मुझे पेड़ के नीचे मिले। मैं सीधा उस पर आऊँगा और तुम वे सब मालाएँ मुझे पहना देना।"
“क्या मतलब?" मैंने चौंककर पूछा तो रोककर बोले, “मतलब कुछ नहीं, जाओ मालाएँ बनवाओ, एक रुपये में एक फूल मिले, तब भी मत चूकना !"
यह बजी घण्टी, हुआ इण्टरवल और वे खड़े हैं पण्डितजी पेड़ के नीचे माइक पर। गला मालाओं से लदा और पण्डितजी खिले-हँसते। क्या है? क्या हुआ? भीड़ उनके चारों ओर और पण्डितजी कह रहे हैं, “भाइयो, मैं आज लाज से गड़ा जा रहा हूँ। आपने मुझे पहले दो बार बोर्ड का मेम्बर चुना। पिछले साल में लापरवाह रहा, ओहदे के नशे में डूबा रहा, आपकी ख़िदमत में भी लापरवाही मैंने की और बहुत-से भाइयों के साथ गरम-सरद भी बोला। मुझे उम्मीद थी कि इस बार आप मुझे ठुकरा देंगे, पर आप बड़े हैं और बड़ों की बात भी बड़ी होती है। आपने आज मुझे तीसरी बार फिर मेम्बर चुन दिया। आपकी मुहब्बत से मैं दबा जा रहा हूँ।
सुना था परमेश्वर दयालु होता है, तो छप्पर फाड़ कर देता है। आज मैंने खुली आँखों देख लिया कि पंच परमेश्वर ने मेरी भूलों को भुलाकर फिर तीसरी बार ये मालाएँ मेरे गले में डालीं।
पंचो, मैं आपके सामने सिर झुकाता हूँ और क़सम खाता हूँ कि अब घर का अपना कोई काम नहीं करूँगा और पूरा समय आपकी सेवा के ही कामों में लगाऊँगा।"
पण्डितजी ने ज़ोर से कहा, बोल, पंच परमेश्वर की जय, पंच परमेश्वर की जय, पंच परमेश्वर की जय और अपने गले से माला उतारकर उन्होंने बड़े बूढ़ों को एक-एक पहना दी !
घण्टी बजी और बस घण्टी ही बज गयी। अपना तो अपना था ही, गैर भी अपना हो गया। जो वोट आया, पण्डितजी के बक्से में और जो वोट आया पण्डितजी के बक्से में। जीतते का जग साथी, हारते का बेटा नहीं। कौन अपना वोट पानी में फेंकता, पण्डितजी एक हज़ार वोट से जीते और विरोधी ने कहा, “वसीयत करके मरूँगा लड़कों के नाम कि कभी चुनाव न लड़ें !"
वही बात कि पण्डितजी झेंपे नहीं और हार को जीत में बदल ले गये !
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
- मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
- रहो खाट पर सोय !
- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
- लीजिए, आदमी बनिए !
- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में