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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।


कृष्ण ने कहा :

राम का निर्णय महान् था, पर उसमें एक उलझन थी कि यह निर्णय कौन करे कि मतभेद में सत्य क्या है, न्याय क्या है? यह हो गया तर्क का विषय और तर्क है बुद्धि का मायाजाल कि सुलझाये न सुलझे। फिर हम न्याय के पक्ष से लड़ें या अन्याय के पक्ष से, युद्ध की असांस्कृतिक-पंजे से फैसला करनेवाली-पशु-प्रवृत्ति तो हममें रही ही !

तो कृष्ण के जीवन की सबसे बड़ी और आकुल जिज्ञासा यही थी कि युद्ध कैसे रुके?

कौरव और पाण्डव परिस्थितियों के मायाचक्र पर चढ़े, दो विरोधी मोर्चा पर आ जमे। पाण्डवों का राज्य एक शर्त के साथ कौरवों के हाथ में आ गया। पाण्डवों ने अपनी शर्त पूरी की, पर कौरव अब राज्य लौटाने से इनकार कर बैठे-सत्य से हट गये, बेईमान हो गये।

राम के निर्णय का तक़ाज़ा है कि पाण्डव लड़ें, पर कृष्ण का अन्तर्मन्थन आकुल है कि इस परिस्थिति में भी युद्ध न हो, युद्ध की पशुता से बचा जाए। वे इस बात पर भी फ़ैसला कराने को तैयार हो गये कि पाँच पाण्डवों को पाँच गाँव दे दिये जाएँ और शेष राज्य कौरवों के ही हाथ में रहे, पर दुर्योधन इस पर भी नहीं मानता तो युद्ध अनिवार्य हो उठता है।

तब भी कृष्ण प्रतिज्ञा करते हैं कि वे युद्ध में स्वयं शस्त्र नहीं उठाएँगे और केवल सारथी रहेंगे, परामर्श देंगे। सचाई यह है कि पाण्डवों के पक्ष में युद्ध का नेतृत्व अब उन्हीं के हाथ में है और युद्ध को रोकने वाला ही युद्ध करा रहा है।

यह कृष्ण की असफलता है, पर यहीं कृष्ण की सफलता है कि वे युद्ध करने की एक नयी मनोवृत्ति संसार को देते हैं-युद्ध सत्य के लिए हो रहा है या असत्य के लिए, उसका करना धर्म है या अधर्म, उससे लाभ होगा या हानि, यह सब मत सोचो, इसका निर्णय तुम कर ही नहीं सकते, तुम तो बस फल की, परिणाम की, चिन्ता और इच्छा दोनों से मुक्त होकर बस लड़ो, निष्काम रहो। यह है एक सामाजिक विवशता को अपने व्यक्तित्व से जीवन-कला का रूप दे देना।

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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