लोगों की राय

कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू

बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

335 पाठक हैं

सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।


बुद्ध ने कहा :

राम ने युद्ध की पशुता को एक ऊँचा आधार देकर संस्कृति से जोड़ा तो कृष्ण ने युद्ध की पशुता के साथ व्यवहार करने की एक नयी मनोवृत्ति देकर संस्कृति से उसका समन्वय किया, पर युद्ध की पशुता ज्यों की त्यों रही।

तब जन्मा एक क्रान्तिकारी महापुरुष-बुद्ध। उसने कहा, मनुष्य को यह शोभा नहीं देता कि वह पशुता करे। हिंसा पशुता है और अहिंसा मनुष्यता। मनुष्य की मनुष्यता का तकाज़ा है कि वह पूरी तरह अहिंसक रहे।

संसार की युद्धों से थकी मानवता के लिए यह एक नयी वाणी थी, इसका समाज पर गम्भीर प्रभाव पड़ा और इसकी पूर्णता हुई यों कि सम्राट अशोक ने सेनाओं का विघटन करके धर्म-प्रचार को अपना मुख्य कार्य बना लिया।

दुर्भाग्य भारत का, दुर्भाग्य संसार का और दुर्भाग्य मानव जाति का कि बुद्ध के उत्तराधिकारियों ने अहिंसा का दुरुपयोग किया और राष्ट्र के जीवन पर एक दयनीय निष्क्रियता छा गयी, जीवन की क्षमता क्षीण हो चली, स्वतन्त्रता खतरे में पड़ी और शंकराचार्य के रूप में प्रतिक्रान्ति ने जन्म ले सफलता पायी।

संस्कृति के इतिहास में बुद्ध का यह महादान है कि वे युद्ध को खुलेआम पशुता कह सके, उसका बिना ननु-नच के विरोध कर सके। उनके कार्य का महत्त्व इसी से स्पष्ट है कि जब विक्रमादित्यों के बनाये महलों-क़िलों की ईंट भी खोजे नहीं मिलती, बौद्ध-विहारों के कलश दूर-दूर आज भी दीप्तिमान् हैं !

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book