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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।


प्रह्लाद ने कहा :

महान् बुद्ध ने युद्ध के-हिंसा के-अशर्त विरोध की जो मशाल जलायी थी वह निष्क्रियता के जिस बवण्डर से बुझी, वह भाषा में यों था, अरे भाई, ठीक है, हम हिंसा न करें, युद्ध न करें, पर हमारा शत्रु तो अहिंसा में विश्वास नहीं करता, वह तो इसे नहीं मानता ! तब क्या हम सिर झुकाकर बैठ जाएँ और शत्रु से कहें कि आइए, पधारिए, हमारा सिर काट लीजिए? यदि हाँ, तो इस तरह विदेशी आक्रमणकारी से हम अपने देश की स्वतन्त्रता को कैसे बचाएँ और न बचाएँ तो क्या देशद्रोही हो जाएँ?

दिग्दिगन्त में गूंजते इस प्रश्न का उत्तर दिया पुराण-पुरुष प्रह्लाद ने। प्रह्लाद का पिता राजा हिरण्यकशिपु इतना नृशंस कि ईश्वर के स्थान में भी अपनी ही सत्ता स्थापित करने को आतुर-आकुल और प्रह्लाद महान् ईश्वर-भक्त। दोनों में संघर्ष स्वाभाविक ही था, पर पिता की आज्ञा में हिंसा की समस्त शक्तियाँ और साधन, पर प्रह्लाद निहत्था और असहाय-एक पहाड़ तो दूसरा रोड़ा।

प्रहलाद ने कहा, मैं पिता की शक्ति का जवाब नहीं दे सकता पर उनकी शक्ति का आदेश मानने से इनकार तो कर सकता हूँ। क्रद्ध होकर उनकी शक्ति मुझे कष्ट देगी। मैं उन कष्टों को नहीं रोक सकता, पर सह तो सकता हूँ। सहते-सहते मैं मर जाऊँगा, पर मरने की सम्भावना तो हिंसा का जवाब हिंसा से देने में भी है। ठीक है, मैं कष्ट सकूँगा, मिट जाऊँगा, पर झुकूँगा नहीं।

पुराण पुराण है। जलते लौह-खम्भ से नृसिंह के रूप में भगवान् निकले, हिरण्यकशिपु का वध हुआ, हिंसा हारी, अहिंसा जीती। लोकमानस विश्वासी है। वह नहीं सोचता कि हर गरम खम्भे से भगवान् नहीं निकलते, वह सोचता है, हिंसा में लाख शक्ति हो, अहिंसा भी कोई मामूली चीज़ नहीं, उसके पीछे दैव की शक्ति है।

लोक-मानस का यह विश्वास ही संस्कृति के इतिहास में प्रहलाद का दान है। यह दान और भी महान् हो उठता, यदि प्रह्लाद उस पर नये प्रयोग करते, पर मालूम होता है कि वे अपनी पहली सफलता से ही इतने भावाभिभूत हो गये कि फिर कुछ भी न कर पाये।

उनके पौत्र बलि ने इधर विशेष ध्यान दिया और वह पूर्ण अहिंसावादी हो चला तो प्रह्लाद ने उसे उपदेश दिया :

न श्रेयः सततं तेजो, न नित्यं श्रेयसी क्षमा।
तस्मान्नित्यं क्षमा तात, पण्डितैरपवादिता॥

बेटे, न सदा क्रोध ही कल्याणकर है, न निरन्तर क्षमा ही, इसलिए आचार्यों ने निरन्तर क्षमा के लिए अपवादों की, विशेष अवसरों के लिए विशेष नियमों की, रचना की है।

इसका क्या अर्थ? यही कि प्रहलाद व्यक्तिगत रूप से अहिंसा के प्रयोग में सफल होकर भी उसके सामहिक प्रयोग का साहस नहीं कर सके। फिर भी प्रह्लाद के प्रयोग ने बतलाया कि अहिंसा निष्क्रियता नहीं है और उसके द्वारा हम हिंसा से टक्कर ले सकते हैं, उसे परास्त कर सकते हैं। वह विवशता नहीं है, उसके प्रयोग में दैवी सम्भावनाएँ हैं, उससे चमत्कार हो सकते हैं, संक्षेप में अहिंसा एक महाशक्ति है।

प्रह्लाद कभी हुए हों, न भी हुए हों, उनका यह दान जन-मानस की अमूल्य धरोहर है।

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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