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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।


तत्त्वज्ञान :

हमारी संस्कृति का तत्त्वज्ञान क्या है? पहले यह कि हमारी क्या? संस्कृति में भेद नहीं है। संस्कृति हिन्दू की, मुसलमान की, ईसाई की, यहूदी की नहीं होती, मानव की होती है। वह पूर्व की, पश्चिम की, रूस की, अमेरिका की, फ्रांस की, भारत की भी नहीं होती। मनुष्य की यह आत्मचेतना कि मैं अनेक बातों में समानता होने पर भी पशु नहीं हूँ, उस से भिन्न हूँ, श्रेष्ठ हूँ, सर्वत्र समान है, इसमें भेद क्या?

हाँ संस्कृति अपने वंश-विकास मण्डल (सभ्यता, समाज, धर्म और दर्शन) के द्वारा जिस तत्त्वज्ञान (जीवन-कला-विचार और कर्म की प्रक्रिया) की रचना करती है, देश-प्रदेश की परिस्थितियों के कारण उसमें भेद सम्भव है, सहज है।

भारत में यह तत्त्वज्ञान किस रूप में प्रस्फुटित हुआ, उसने जन-जीवन में क्या स्वरूप लिया, इसका अनुभव एक दिन मुझे विचित्र रूप में हुआ।

भाई रघुवीरशरण को मरे चौथा दिन था और हम सब उसके फूल चुनने श्मशान गये थे। अस्थियाँ संचय कर एक थैली में भरी गयीं और चिता की राख इकट्ठी कर, उसकी एक ढेरी बना दी गयी। प्रथा के अनुसार बाँसी के वृक्ष की एक टहनी उस ढेरी पर रोप दी गयी।

इसका क्या अर्थ? यह नये जीवन का प्रतीक था। भारतीय तत्त्वज्ञान के अनुसार मृत्यु अन्त नहीं, नाश नहीं, एक परिवर्तन है। वासांसि जीर्णानि यथा विहाय-हम इधर मरते हैं, उधर जन्मते हैं। इधर की सन्ध्या उधर का प्रभात है। मृत्यु की यह प्रसन्नतापूर्ण कल्पना हमारे जीवन की एक विभूति है। चिता की राख पर वृक्षारोपण कर हम इसी की घोषणा करते हैं।

देरी से हवन-सामग्री आने के कारण वृक्षारोपण के बाद हवन किया गया। अग्नि में सामग्री छोड़ने पर वैद्य जगदीशचन्द्रजी ने देखा सामग्री के साथ एक कीड़ा जल रहा है। बड़ी फुर्ती से, अत्यन्त कोमलता के साथ उन्होंने अपनी उँगली जलाकर भी उसे बचा लिया।

इस क्षुद्र कीट का जीवन क्या, पर उसे बचाने की एक भारतीय को इतनी चिन्ता है कि वह अपनी उँगली जलने की भी चिन्ता नहीं करता। जीवन की यह महत्ता, जीव-मात्र के प्रति यह संवेदन, जीवन के प्रति यह दिलचस्पी हमारे जीवन की दूसरी विभूति है।

सोचा, भारतीय तत्त्वज्ञान जीवन को एक खेल मानकर भी जीवन की उपेक्षा नहीं करता और उसके अनुसार जीवन का स्वरूप यह है कि हम पृथ्वी को स्वर्ग बनाने के संघर्ष में मृत्यु का भय छोड़कर जूझते रहें और या तो हम अपने श्रम से पृथ्वी को ही स्वर्ग बनाकर जीवन के आनन्द का उपभोग करें अन्यथा ऐसा करने के प्रयल में ही अपने जीवन का उत्सर्ग कर यश और आत्म-तुष्टि के स्वर्ग में अपना सिंहासन स्थापित करें।

जीवन का यह कितना परिपूर्ण चित्र है-मधुर, उज्ज्वल, आशा एवं आनन्दमय !

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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