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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।

जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं


मेरठ की नौचन्दी में एक शानदार कवि-सम्मेलन था। मैं न कवि हूँ न गायक और कवि-सम्मेलन में इन्हीं की ज़रूरत पड़ती है तो मैं एक गैर-ज़रूरी चीज़ था, पर साथियों ने पकड़ मँगाया था तो था वहाँ-शायद प्राचीन युग के पण्डे की तरह, शायद इस युग के गाइड की तरह !

रात में दरबार-कैम्प में कवि-सम्मेलन होना था और उसके पास ही टेण्ट में कवि लोग खाना-पीना कर रहे थे। क़ायदा है कि कवि-सम्मेलन होने से पहले कवियों की खूब आवभगत होती है, पर उसके बाद वे अकसर अपने बिल के लिए संयोजकजी को खोजते फिरा करते हैं या अपना बिस्तर स्वयं ढोये ताँगा स्टैण्ड की ओर बढ़ते दिखाई दिया करते हैं।

इसी बीच आँधी उठ आयी, बादल घिर गये और वह दौंगड़ा पड़ा कि दरबार-कैम्प की हालत उखड़ते मेले-जैसी हो गयी। कवि-सम्मेलन दूसरे दिन के लिए स्थगित हो गया, कोई और रास्ता ही न था; अब प्रश्न था कवियों को शहर तक पहुँचाने का।

श्री बालमुकुन्द ‘अनुरागी' ने मित्रभाव से कहा, मेरे पास दो कम्बल हैं, इन्हें उढ़ाकर सब साथियों को हम ताँगा-स्टैण्ड तक चले जाएँगे और वहाँ से ताँगा पकड़ लेंगे, पर संयोजक अपने अतिथियों को पूरा आराम देने के पक्ष में थे इसलिए उन्होंने गर्वोक्ति के स्वर में कहा, “नहीं जी, सबको मोटर में भेजते हैं" पर मोटर वहाँ कहाँ थी?

वे बोले, "दिल्ली से श्री...जी अपनी मोटर में आये हैं, उसमें चले जाएँगे सब।"

“वह मोटर नहीं मिल सकती !' शान्त दृढ़ता से अनुरागीजी ने कहा, तो संयोजकजी बोले, “वाह साहब, मोटर क्यों नहीं मिल सकती, हमने उनके परिवार के लिए अपने खर्चे से टेण्ट लगवाया है और सौ इन्तज़ाम किये हैं।"

अनुरागीजी चुप रहे और संयोजकजी अपने को कम्बल' और आत्मविश्वास में लपेटते से बाहर चले गये। तभी अनुरागीजी ने मुझसे कहा, “लो, संयोजकजी तो माने नहीं, पर अब यह फैसला होगा कि श्री...जी धनपति हैं या धनपशु?''

तभी आँधी का एक नया रेला आया और हमारा टेण्ट गिर-गिरूँ हुआ कि हम उधर लग गये और बात हवा के झोंकों चढ़ी उड़ गयी। संयोजकजी ने आकर कहा, "वे कहते हैं, यात्रा में ड्राइवर थक गया है। थोड़ा आराम कर ले तो अभी छोड़ आएगा।" हम सब समझ गये कि उन्हें अपनी नयी गाड़ी के ख़राब होने की चिन्ता है, पर अनुरागीजी बोले, “भाइयो, कम्बल ओढ़ो, चलो, फ़ैसला हो गया।"

उनके वाक्य ने औरों को सुलझाया तो मुझे उलझा दिया, जिसके पास धन का संग्रह है, वह धनपति; फिर यह धनपशु क्या है?

मित्र-साथी परिस्थितियों का रस लेते रहे, मैं सोचता रहा। उलझे रहना मेरे स्वभाव के विरुद्ध है, पर उलझन तो है ही कि धनपति और धनपश के मध्य की भेद-रेखा कहाँ है? क्या है?

श्री....जी धनपशु हैं, यह फैसला हो गया, पर वे धनपशु क्यों हैं? इसलिए कि उन्होंने मनुष्य की अपेक्षा अपनी सम्पत्ति को अधिक महत्त्व दिया तो उलझन सुलझ गयी कि जो आदमी अपने संगृहीत धन को महत्त्व दे वह धनपति, पर जो उसे मनुष्य की अपेक्षा भी महत्त्व दे, वह धनपशु; जिसके लिए संसार में धन ही सर्वोत्तम !

मैं भी बातचीत में लग गया, पर मुझे लगा कि सत्य अभी अधूरा ही हाथ आया है।

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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