कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
दो
इस घटना के कोई दस वर्ष बाद। मैं उस दिन देहरादून से मसूरी जा रहा था। बस में जहाँ में बैठा, उससे अगली जुड़वाँ सीट पर दो सज्जन बैठे थे। एक प्रौढ़, एक तरुण। आमतौर पर मेरा ध्यान साथी यात्रियों पर नहीं जाता, क्योंकि एकान्त में बाहर कम, भीतर ज़्यादा देखना तो यात्रा में भीतर कम, बाहर अधिक देखना मेरा स्वभाव है। फिर पहाड़ी यात्रा में तो आस-पास होता है सजावट के कोढ़ से घिरा हुआ सौन्दर्य, छछोरपन से छायी हुई जवानियाँ, दरिद्रता से दलित कुछ मानवात्माएँ और बाहर विराट् प्रकृति का वैभव, पर यात्रा के आरम्भ में ही एक ऐसी बात हो गयी कि मेरा ध्यान सामने वाले प्रौढ़ पर जा टिका।
बस चलने को ही थी कि बादल गहरे हो आये तो उन्होंने ज़ोर से कहा, "क्यों ड्राइवर, ऊपर तिरपाल भी डाल दी है। हमारा रेडियो रखा है। पूरे एक हज़ार रुपयों का है।" उन्होंने 'पूरे एक हज़ार' का जिस ढंग से प्रयोग किया, उसने मेरे कानों के परदे पर एक ऐसी टंकोर दो, जो बहुत देर गूंजती रहती है।
ड्राइवर ने उन्हें विश्वास दिलाया कि रेडियो सुरक्षित है। ड्राइवर ज़रा नीचे उतरा तो उन्होंने क्लीनर को बुलाकर कहा, “अरे, हमारा एक हज़ार रुपये का रेडियो ऊपर रखा है।' उसने भी उन्हें आश्वासन दिया। अब वे स्वयं नीचे उतरे और बस के चारों ओर घूमे-आँखें ऊपर किये हुए। लौटे तो आप ही आप यह कहते हुए- “एक हज़ार की रक़म है।" मैंने सोचा, एक हज़ार रुपये रेडियो की क़ीमत है या इस आदमी की बातचीत का नारा?
बस चली तो वह प्रौढ़ उस तरुण को बताने लगा कि हम कितनी सब्ज़ियाँ लाये हैं। देहरादून से दो सेर पालक का शाक एक रुपये में लिया और मसूरी में यह मिलता है एक रुपये सेर तो इस तरह एक रुपया बचा। तोरी, भिण्डी, टेण्डस, अदरक, नीबू, मूली सबका हिसाब जोड़ा। बीच-बीच में वह भूल गया तो फिर जोड़ा। कुल मिलाकर सात रुपये बचे थे, यों हम राजपुर पहुंचे।
राजपुर से बस चली तो चारों ओर प्रकृति का स्वर्ग। तभी अपनी डायरी में कुछ लिखने को तरुण ने अपना पेन निकाला तो उस प्रौढ़ ने कहा, “कितने रुपये का है तुम्हारा पेन?'' वह मामूली पेन था। तब प्रौढ़ ने भीतर की जेब से निकालकर अपना पेन तरुण को दिखाया, “यह एक सौ पचास रुपये से ज़्यादा का है।"
फिर गर्व में डूबकर बोला, “मैंने यह पाँच रुपये में लिया था। एक पहाड़ी लड़का इसे बार-बार खोलकर देख रहा था। मैं भाँप गया कि यह अपने सेठ का उड़ाकर लाया है। बस, मैं उसे अपने साथ घर ले आया। पाँच रुपये नक़द दिये और अपने लड़के का पुराना कुरता। वह सुसरा इसकी क़ीमत क्या जानता? टूट जाए, तब भी पैंतालीस रुपये कम्पनी देती है इसकी निब के !"
मैंने यह सब सुना तो अधमरा-सा हो गया। सोचा, आज हम जिसे दूसरे के घर चोरी करने की लत डालते हैं, वह कल हमारा नौकर भी हो सकता है और तब वह हमारे ही घर हाथ साफ़ करेगा। सामूहिक जीवन की दृष्टि से हम कितने दिवालिया हो गये हैं?
पेन जेब में डालते समय एक कागज़ उनके हाथ को लगा। निकाला तो कहीं से आया हुआ लिफ़ाफ़ा। मैं देख रहा हूँ कि वे उस लिफ़ाफ़े को बहत गौर से देख रहे हैं। यों क्या देख रहा है यह जानवर? मेरे भीतर यह प्रतिक्रिया फूटी कि उसने तरुण की तरफ़ लिफ़ाफ़ा बढ़ाकर पूछा, 'देखना, इसके टिकट पर मोहर का निशान तो नहीं पड़ा, यह तो दूसरे लिफ़ाफ़े पर लग सकता है?" और तब बहुत खुश होकर बोला, “वाह-वाह, लिफ़ाफ़ा भी आया और टिकट भी साथ लाया; यहाँ भी पैसे बचे।"
सोचा, आजकल हर चीज़ महँगी है, सिर्फ़ ईमान सस्ता है और तब याद आयी महाकवि कालिदास के रघुवंश की यह बात कि ऋषि लोगों को खेतों पर 'सिला' चुगने से जो अन्न प्राप्त होता था, उसका छठा भाग राज्यकर के रूप में वे अलग रख देते थे, पर उसे लेने राजा का कोई आदमी आता न था तो वे उसे अपने उपयोग में न लेकर वापी-तड़ाग के तटों पर बो देते थे– 'षष्ठांशमुर्त्या इव रक्षितायाः'।
एक दिन हमारी ईमानदारी, देश की सामहिक व्यवस्था में अपना भाग अर्पित करने की हमारी निष्ठा इस रूप में थी, पर आज एक खाता-पीता आदमी अपने स्वतन्त्र देश की सरकार को कुछ पैसों का भी धोखा देने को तैयार है !
बहुत ही सुन्दर प्रदेश से होकर बस गुज़र रही थी। मैं उस सौन्दर्य में उलझ चला, पर तभी याद आ गयी मुझे मेरठ वाली उस घटना की और मैंने सोचा कि उस दिन धनपशु के स्वरूप का सिर्फ ज्ञान हुआ था, यह उसका साक्षात्कार है।
अब यह सूत्र मेरे हाथों में आ गया था : जो जीवित मनुष्य की अपेक्षा अपने जड़ धन को अधिक महत्त्व दे वही नहीं, जो सत्य की अपेक्षा, न्याय की अपेक्षा धन को महत्त्व दे, वह भी धनपशु है।
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
- मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
- रहो खाट पर सोय !
- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
- लीजिए, आदमी बनिए !
- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में