कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
तीन
उस दिन कलकत्ते से चला तो रेल के डिब्बे में नीचे की एक बर्थ पर मैं था। सामने की बर्थ पर एक तरुणी, ऊपर की बर्थ पर उनके पति और मेरे ऊपर की बर्थ ख़ाली।
सोने का अभी समय नहीं था। वे दोनों नीचे की बर्थ पर बैठे बातें करने लगे और मैं बाहर का दृश्य देखने लगा। रात अँधेरी थी, पर मीलों तक कलकत्ते का वैभव रेल के साथ दौड़ता है, जैसे विज्ञान का दैत्य विज्ञान की प्रदर्शनी के बीच से फुकारता जा रहा हो।
अचानक किसी ने मुझे छुआ सा, तो मैंने भीतर झाँका। तरुण महाशय मेरी बर्थ के नीचे कुछ देख रहे थे। क्या है भैया? मैंने पूछा तो बोले, इन्होंने अभी-अभी उँगली से अँगूठी निकाली तो वह छटककर जाने कहाँ जा गिरी?
मैंने तकिये के नीचे से टार्च निकालकर चमकाया और कोने में छिपकर रूठकर बैठी-सी उनकी अंगूठी मिल गयी। मैं लेट गया, अब वे दोनों मेरे सामने थे।
अंगूठी को तर्जनी में चक्र की तरह घुमाते हुए तरुणी ने कहा, “मौसी की हालत तो थी नहीं कि वह प्रेजेण्ट (उपहार) दे, पर अंगूठी उसने दे ही दी। कितने रुपये की होगी यह?"
“पुखराज तो इसका अच्छा है, काफ़ी दाम की होगी।” तरुण ने कहा और दे दोनों इतनी नहीं इतनी के ऊहापोह में उलझ गये, पर तरुणी को सन्तोष न हुआ। तब अंगूठी को अनामिका में पहनते हुए उसने फ़ैसला दिया, “इलाहाबाद पहुँचते ही इसे जौहरी को दिखाऊँगी।"
बिजली बुझा दी गयी, डिब्बे में अँधेरा हो गया, पर मेरे भीतर जिज्ञासा का यह जुगनू चमकता रहा-मौसी की ममता और अंगूठी का सौन्दर्य इन लोगों को प्रभावित नहीं कर पाया और बस इनकी दिलचस्पी सिर्फ इस बात में है कि इसका मूल्य क्या है, यह कैसी मनोवृत्ति है?
यह जगनू भभककर लैम्प हो गया, जब मैंने सोचा, निश्चय ही ये दोनों पक्के धनपशु हैं।
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
- मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
- रहो खाट पर सोय !
- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
- लीजिए, आदमी बनिए !
- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में