कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
चार
विद्वान्, तपस्वी और संन्यासी, तीनों गुण एक साथ और रूँगा में कर्मठ भीरात-दिन धर्म-रक्षा की चिन्ता में लीन। यों ही एक बार मुझे भी सम्पर्क प्राप्त हो गया। घण्टों साथ रहा, पर उनकी किसी बात का सम्बन्ध न विद्वत्ता से, न तपस्या से, न वैराग्य से, न कर्म से। हर बात 16वीं सदी की, हर बात जड़ता की और हर बात का बस यही अर्थ कि ज्ञान का सूर्य अतीत में निकल चुका, बुद्धि की रोशनी सदियों पहले फैल चुकी। आज के मनुष्य को कोई नयी बात नहीं सोचनी, किताब देखकर तिलिस्म के दरवाज़े खोलते जाना है।
देख-सुनकर बड़ी दया आयी कि बेचारा घर कुटुम्ब की ममता का घेरा तोड़कर सफ़ेद से रंगीन हो गया, पर विचारों के ताले को न तोड़ सका। मेरे नगर के ही एक सज्जन हैं। इक्कीस वर्ष की उम्र में पुलिस दारोगा हुए थे, पचपन की उम्र में पेंशन पायी और अब बयासी वर्ष के हैं। यों समझिए कि चौथाई सदी पहले दारोगा थे, पर आज भी सारा शहर दारोगाजी कहता है। कोई भूला-भटका बाबूजी कह दे तो उन्हें ऐसा लगता है कि यह मेरी चपरास छीन रहा है। ताले में बन्द हैं बेचारे और क्या?
एक और परिचित हैं। मर-मारकर डिप्टी हो गये हैं और अब उनकी बीवी और बेटा. तो उन्हें डिप्टी कहते ही हैं, पर दःखी हैं कि माँ अब भी उनका नाम ही लेती हैं, उन्हें डिप्टी नहीं कहतीं।
अजी छोड़िए इस डिप्टी और दारोगा को, वर्माजी और केशोजी को लीजिए। वर्माजी बड़े लेखक हैं, लेखक क्या हैं लेखकों के महन्त हैं। पहली बार मैं दर्शन करने गया तो बहुत प्रभावित हुआ उनकी बातों से। अपने संग्रह की कथा उन्होंने सुनायी और कई नेताओं के संस्मरण। मैंने सोचा, ज्ञान, संग्रह और सम्पर्क, तीनों दष्टियों से ये महान हैं और उठते-उठते जब उन्होंने कोई बीस वर्ष पहले प्रकाशित मेरे एक लेख की प्रशंसा की तो उनकी स्मरणशक्ति और सहृदयता का मुझ पर बहुत ही गहरा प्रभाव पड़ा।
और केशोजी? वे एक बड़े नगर के पत्रकार हैं। कोई तीस वर्ष हुए एक साधनसम्पन्न साथी उन्हें मिल गया था और वे भभक उठे थे। तब उस नगर में वे-ही-वे थे। कोठी थी, फ़ोन था, कार थी, रोब था, धूम थी-अजी, क्या न था, यह था, वह था सभी कुछ था। कुतुबमीनार से लुढ़के कि बस लुढ़के और फिर उठने का नाम नहीं लिया।
जब पहली बार मिले तो उसी सूर्योदय की कथा कही और जिन अनेक लेखकों को मैं सिर झुकाता हूँ, उन्हें अपना निर्माण बताया। उनकी विशिष्टता का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा।
यह प्रभाव काफ़ी गहरा था पर दूसरी बार के मिलन में वह कच्चे रंग की तरह उड़ गया, क्योंकि वर्माजी ने और केशोजी ने मुझसे वे ही बातें की-दूसरी बार ही नहीं, तीसरी, तीसवीं और सौवीं बार भी बातों का घेरा वही रहा और अब तो मेरे मन की स्थिति स्पष्ट है कि उनसे मिलता हूँ तो पहले ही एक पुराना और घिसा रेकॉर्ड सुनने के लिए अपने कानों को तैयार कर लेता हूँ।
स्पष्ट है कि वर्माजी और केशोजी और ऐसे ही दूसरे सैकड़ों-हज़ारों जी समय के ताले में बन्द हैं-उससे बाहर झाँकने की न उनमें इच्छा है, न शक्ति-ओह बेचारे अपने ही समय के कैदी, एक ऐसे ताले में बन्द, जिसके निर्माता भी वे स्वयं ही हैं।
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
- मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
- रहो खाट पर सोय !
- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
- लीजिए, आदमी बनिए !
- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में