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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।

जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !


वसन्तोत्सव के मन्त्रीजी आये थे, कह गये हैं कि इस बार के प्रमुख वक्ताओं में उन्होंने मेरा भी नाम सर्वसम्मति से रखा है। शहर भर में लगाने के लिए उन्होंने जो दो हज़ार पोस्टर छपाये हैं, उनमें भी मेरा नाम छापा गया है। अपनी फ़ाइल में लगा वह पोस्टर उन्होंने मुझे दिखाया भी था। इच्छा तो हई थी कि यह पोस्टर उनसे माँग लूँ, पर यह मुझे ज़रा हलकापन लगा फिर यह भी सोचा कि काहे के लिए अपने को उनकी निगाहों में गिराऊँ, आखिर ये दो हज़ार पोस्टर लगेंगे तो शहर की दीवारों पर ही, कहीं से भी चुपचाप एक उतार लूँगा। फिर यही क्या ज़रूरी है कि मैं ख़ुद उतारता फिरूँ गलियों में पोस्टर। किसी लड़के को कुछ पैसे दिये और पोस्टर घर आ गया।

तो खैर, मैंने यह अच्छा ही किया कि पोस्टर उनसे नहीं माँगा और मन की बात मन में रख ली। फिर भी मन्त्रीजी की आँख बचाकर मैंने वह पोस्टर पढ़ ज़रूर लिया था। वक्ताओं में सात नाम थे और उनमें मेरा नाम तीसरे नम्बर पर था। प्रिंसिपल त्रिवेदी और बाबू राजकुमार एम. एल. ए. का नाम ही मेरे नाम से ऊपर था। इसका मतलब साफ़ है कि मन्त्रीजी और नगर के दूसरे लोग मेरी योग्यता से पूरी तरह परिचित हैं।

फिर प्रिंसिपल त्रिवेदी और राजकुमार एम. एल. ए. का नाम भी उन्होंने मेरे नाम से ऊपर सम्भवतः उनके पदों के कारण ही छापा होगा, वरना यह भी सम्भव है कि मेरा ही नाम सबसे ऊपर रहता। वैसे तीसरा नम्बर भी क्या बुरा है। राह चलते आदमी की निगाह जब पोस्टर पर पड़ती है तो ऊपर के तीन नाम ही आँखों में आते हैं।

खैर, यह तो निश्चित है कि इस पोस्टर को सारा शहर पढ़ेगा और इस तरह इस पोस्टर से मेरा नाम सारे शहर में एक बार तो गूंज ही उठेगा।

यह भी एक वात ही है कि मेरा नाम वावू राजकुमार एल. एल. ए. के बाद छपा है। कहते हैं कभी-कभी क़िस्मत इतनी दूर से इशारा करती है कि उसे समझना हरेक के बस का नहीं होता। कौन जाने यह भी मेरी क़िस्मत का एक इशारा ही हो !

राजकुमार एम. एल. ए. के वाद मेरा नाम छपा है तो क्या यह सम्भव नहीं कि उनके बाद मुझे ही एम. एल. ए. होना हो? वे दो बार एम. एल. ए. रह चुके हैं, अब काफ़ी बूढ़े हो गये हैं और बिना चाहे वसन्तोत्सव में भाषण देने के लिए मेरा रखा जाना इस बात का सबूत है कि लोग मुझे चाहते हैं, पसन्द करते हैं।

फिर असेम्बली की मेम्बरी कोई राजकुमार के बाप का बैंक-बैलेंस नहीं कि वे लायक़ हों या निखटू, वह मिलेगा उन्हें ही। अजीब बात है कि आदमी मौत के रथ तक भी पदों की अर्थी पर बैठा-बैठा ही जाना चाहे। हाँ, चाह करे आदमी स्वर्ग को मुट्ठी में ले लेना, पर चाहने से होता क्या है। यह जनतन्त्र का युग है। अब पद-प्रतिष्ठा खानदानों की बपौती नहीं हो सकती। जी, वे दिन हवा हुए जब खलील ख़ाँ फाख्ता उड़ाया करते थे। अब कुरसियों पर आदमी आसमान से नहीं उतरते, अब तो जनता जिसे चाहेगी धरती से उठाकर उन पर बैठा देगी।

और फिर वही भाग्य के इशारे की बात, बाबू राजकुमार के बाद ही मेरा नम्बर है। उनके भाषण में होता ही क्या है? वही ढाक के तीन पात; न जोश का उफान, न भावों की कोई कड़ी, न सरसता ही। उनके बोदे व्याख्यान के बाद मैं ऐसा भव्य भाषण दूँगा कि वे और सभा, दोनों ही गजकर्ण होकर सुनते रह जाएँगे !

सचाई यह है कि यह निमन्त्रण वसन्तोत्सव का नहीं, मेरे भाग्योत्सव का ही है।

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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