लोगों की राय

कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू

बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

335 पाठक हैं

सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।


फिर सभा में कोई आदमी सिर्फ भाषण से ही नहीं जमता, जमने की भी एक कला है और कला क्या है, तरकीब है और तरकीब भी क्या है एक चाल है-बस चली कि फिट और फिर देखिए तालियों की वो गड़गड़ाहटें, वो गड़गड़ाहटें कि बेचारे आसामन के कान काँप उठे।

और चाल भी क्या कोई शतरंज की चाल है कि घुटने पर गाल रखे नवाब मफ़्तू सोचा करें सौ और हाथ न आए एक। चट रोटी पट दाल, जी हाँ चट रोटी पट दाल-इधर तीर छूटा उधर शेर घायल !

लो सच बता दूं, यह चाल कुछ मेरी अक्ल का कारण नहीं है, यह सतीश की सूझ का तोहफ़ा है। वह कविता-वविता तो यों ही कुछ लिखता था, पर हाँ, कवि-सम्मेलन में जमती उसी की थी। अरे भाई, पब्लिक यानी जनता का दिमाग भेडियाधसान है, जिधर चले कि चले और न चले तो बस ठप्प। तो सतीश अपने साथ आठ-दस चेले-चाँटे ले जाता और ज्यों ही वह कविता आरम्भ करता कि वे पुनः-पुनः, साधु-साधु और वाह-अति सुन्दर के साथ तालियों से वातावरण को गुंजा देते और ऐसा समा बँधता, ऐसा समा बँधता कि क्या बताऊँ आपको कि दूसरों के मोती रले फिरते और उसके गिट्टे चमक उठते।

तभी तो कह रहा हूँ मैं कि सभा में कोई आदमी सिर्फ भाषण से ही नहीं जमता, जमने की भी एक कला है और कला क्या है एक तरकीब है और तरकीब भी क्या है एक चाल है बस चली कि फिट और फिर देखिए तालियों की वो गड़गड़ाहटें, वो गड़गड़ाहटें कि बेचारे आसमान के कान भी काँप उठें और चाल भी क्या कोई शतरंज की चाल है कि घुटने पर गाल रखे नवाब मफ्लूँ सोचा करें सौ और हाथ न आए एक। चट रोटी पट दाल, जी हाँ चट रोटी पट दाल-इधर तीर छूटा उधर शेर घायल।

तो भाषण की सफलता निश्चित है और यह भी कि राजकुमार बाबू को साँप सँघ जाएगा, यानी मेरा वसन्त उनका बस अन्त ही है।

वसन्तोत्सव समीप आ रहा है और मैं पूरे जोरों से अपने भाषण की तैयारी कर रहा हूँ। भाषण दे देना आसान है, पर मैं ऐसा भाषण देना चाहता हूँ कि प्रतिष्ठित पत्रों में उसके मुख्य अंश तो छपें ही, साथ ही उस पर ज़्यादा नहीं तो दो-चार में सम्पादकीय टिप्पणी भी जड़ी जाए।

यह कोई कठिन काम नहीं है। मैंने अत्यन्त प्रतिष्ठित पुरुषों द्वारा पढेद गये कोई बीस-पचीस भाषण इकट्ठे कर लिये हैं और उनके चुने हुए अंश उनमें से काट लिये हैं। यह काफ़ी क़ीमती मसाला है और हमारे सम्पादक लोग इसकी उपेक्षा नहीं कर सकते।

और यदि इन भाषणों को वे सम्पादक पहले पढ़ चुके हों और मेरे भाषण को चोरी का गुलदस्ता लिख दें तो बस डूब गयी नाव, यह बहुत बड़ा ख़तरा है, पर ख़तरे को दूर से ताड़ लेना और बचाव बाँध रखना ही खिलाड़ीपन है।

मैं भी अनाड़ी नहीं हूँ। वैसे तो मैं कह सकता हूँ कि ये भाषण जिन लोगों ने पढ़े हैं, कुछ उनके भी लिखे नहीं हैं, भाषणों में तो विचारों का आदान-प्रदान देन-लेन चलता ही है; पर मैं कच्ची गोलियाँ भला खेलूँ ही क्यों?

मैंने सब विचारों की भाषा बदल दी है-भाव अनूठे चाहिए, भाषा कोई होय। अब भाषा मेरी है और विचार भगवान के। फिर भाषा और विचार दोनों से बढ़कर है व्याख्यान की भाव-श्रृंखला। उसमें मैंने रात-दिन मेहनत की है।

इस तरह व्याख्यान का मसाला तो तैयार है, पर प्रश्न यह है कि मैं उसे आरम्भ कहाँ से करूँ? मैंने देखा कि हमारे प्रदेश के प्रमुख वक्ता भाई यशपाल सिंह अपना भाषण किसी शेर से शुरू करते हैं और शेर के पढ़ते ही हज़ारों लोगों के दिल उनकी मुट्ठी में आ जाते हैं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book