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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।


मैं चाहता हूँ कि कोई ऐसा शेर हो, जो लोगों को तड़पा दे, बेचैन कर दे, मुग्ध कर दे, लोट-पोट कर दे। इस काम के लिए मैंने कोई पचास-साठ शेर इकट्ठे किये हैं, पर तै नहीं कर पा रहा हूँ कि किसे जमा हूँ।

बहुत सोच-विचार के बाद यह शेर मेरे दिल में समाया है कि यह ऐसा जमेगा, ऐसा जमेगा कि न पूछिए-शेर क्या है, दिलों का सीमेण्ट है :

असर कहते हैं जिसको,
वह ख़ुदा की देन है लेकिन-
इजाज़त हो तो हम भी,
अर्ज कर लें दास्ताँ दिल की।

अदब और दबाव, दोनों का वाह क्या मिलान है।

इजाज़त हो तो हम भी,
अर्ज कर लें दास्ताँ दिल की।

शेर तो वाक़ई ज़ोरदार है, पर एक बात है कि कुछ लोग शेर से भापण को शुरू करना ज़रा हलकापन मानते हैं। तो फिर क्या करूँ? हाँ, ठीक है, स्वामी रामानन्दजी के तरीके से काम लूँ कि व्याख्यान को किसी कहानी से शुरू करूँ।

दृष्टान्त-सागर में अच्छी कहानियाँ हैं और दृष्टान्त-समुच्चय में भी, पर वे ज़रा पुराने-से ढंग की हैं और कुछ गम्भीर भी हैं। मैं कोई ऐसी कहानी चाहता हूँ कि वह ऐसी चटपटी हो कि सुनते ही जनता उसमें उलझ जाए। तो फिर ह्यू एनत्सांग की कहानी सबसे अच्छी रहेगी।

दक्षिण भारत से एक आदमी उत्तर भारत में आया। वह अपने पेट पर ताँबे के पत्तर बाँधे रहता था और सिर पर जलती हुई मशाल। उससे लोगों ने पूछा कि तुम ऐसा क्यों करते हो? उसने उत्तर दिया कि मेरे पेट में इतनी ज़्यादा अक्ल है कि मैं पेट पर ताँबे के पत्तर न बाँधू तो मेरा पेट ही फट जाए और सिर पर मशाल इसलिए बाँधता हूँ कि मेरे चारों तरफ़ जो लोग हैं, वे अज्ञान के अँधेरे में भटक रहे हैं; मुझे उन पर दया आती है और मैं उन्हें यह रोशनी दिखाता हूँ।

ठीक है बस इससे ही आरम्भ करूँगा अपना व्याख्यान। बात यह है कि इससे दो लाभ एक साथ होंगे। बाबू राजकुमार पर तो यह चोट हो जाएगी कि कुछ तुममें ही अक्ल नहीं है, मुझमें भी है और जनता के लिए इसी बात को मोड़ दूँगा यों कि मुझे उस आदमी की तरह अक्ल का बदहाजमा नहीं है, मैं तो आपका नम्र सेवक हूँ।

खैर, भाषण मैंने ऐसा बाँध दिया है कि सुनते-सुनते लोग मुग्ध हो जाएँ और अधिक नहीं तो दो-चार सप्ताह तो नगर में उसी की चर्चा रहे, पर यह क्या बात है कि कल वसन्तोत्सव है और आज मेरा हृदय धक-धक् कर रहा है। कल के उत्सव की बात याद आते ही शरीर में दौड़ता र सा जाता है।

किसी सभा में भाषण देने का यह मेरे लिए पहला दिन है, पर जैसे बातचीत वैसा भाषण। बातचीत रुक-रुककर की जाती है और भाषण बिना रुके। फिर जब भाषण तैयार है और उसे मैंने क़रीब-क़रीब रट डाला है तो इसमें चिन्ता की क्या बात है, धड़ाधड़ बोलता चला जाऊँगा।

हाँ, बात तो ठीक है, बोलता चला जाऊँगा। अजी मैंने यहाँ तक निशान लगा लिये हैं कि कहाँ जोश के साथ वोलना है और कहाँ धीमे से, कहाँ अपने को गम्भीर रखना है और कहाँ हँसना। असल बात यह है कि भाषण में उतार-चढ़ाव बहुत ज़रूरी है।

हाँ, भाषण में उतार-चढ़ाव ज़रूरी है, पर मेरे दिल में यह उतार-चढ़ाव क्यों हो रहा है। ऐसी घबराहट तो मुझे पहले कभी नहीं हुई। सभी मानते हैं कि मैं डरपोक नहीं हूँ।

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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