कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
फिर यह भी ख़तरा नहीं है कि भाषण बिगड जाए, क्योंकि पहले तो रट मारा है, फिर कई बार बाग में जाकर उसे दोहरा लिया है और आज तो मैंने उसके नोट्स भी ले लिये हैं। ऐसी तरकीब से उस परचे को मेज़ पर रख लूँगा कि मुझे एक के बाद एक पैड़ी दिखाई देती रहे और किसी को इस सर्चलाइट का पता भी न रहे।
मैं समझता हूँ कि अब घबराहट की कोई बात नहीं है।
हाँ, घबराहट की क्या बात होती इसमें, पर थोड़ी-थोड़ी देर में कलेजा जाने क्यों बाहर को आने लगता है। सोचता हूँ मन्त्रीजी को एक पत्र भेज दूँ कि तार आ गया है, एक सम्बन्धी बीमार हैं, बाहर जा रहा हूँ, बस झगड़ा-टण्टा ख़त्म। भाषण का क्या, ये तो आये दिन जलसे-उत्सव खडे ही रहते हैं।
हाँ, यही ठीक है। कौन मुसीबत में जान फाँसे। कहीं ऐसा न हो कि आये थे चौबेजी छब्बे बनने, पर रह गये दबे ही, यानी आये थे बेचारे नमाज़ बख्शवाने, रोज़े गले पड़े।
बाहर जाने का फैसला कर लिया था, पर रात माधो की माँ मिल गयी। बुढ़िया टनटूमन में मास्टर है। बोली, अरे जब तक मैं हूँ तुझे क्या फ़िकर, जेठ पूत की अँगछी-टोपी दे दूंगी। जाते समय उसे जेब में डाल लियो, बस फ़तह ही फ़तह है। चारों तरफ़ दुश्मन ही दुश्मन हों, तब भी सिक्का तेरा ही बैठेगा। मेरी बात झूठ निकले तो चोर का हाल सो मेरा हाल !
मन्तर-तन्तर, झाड़ा-फूंकी और टनटूमन में अब लोगों का विश्वास नहीं है, पर हमारे बड़े बुजुर्ग क्या मूर्ख ही थे, जो इनमें विश्वास करते थे !
आख़िर कोई तो बात है ही इनमें। कहते हैं पण्डित जयन्तीलाल शिवाबली दिया करते थे तो गीदड़ी आकर स्वयं बलि को खा जाती थी। गीदड़ी न आए तो वे लाख का लोभ देने पर भी अनुष्ठान हाथ में न लेते थे और साफ़ कह देते थे कि तेरा काम सिद्ध नहीं होगा।
आज ही वसन्तोत्सव है। तीसरे दिन मैं हजामत बनाता हूँ और आज उसका दिन नहीं था, फिर भी मैंने हजामत बनायी। बात यह है कि हजामत भी आदमी के व्यक्तित्व को चमकाती है और व्यक्तित्व की चमक भाषण के जमने में मदद देती है।
मैं कभी शेरवानी और पाजामा पहनता हूँ, कभी बुश्शर्ट-पतलून और कभी कुरता-धोती। मैंने सबको अलग-अलग पहनकर शीशा देखा और अन्त में शेरवानी-अचकन को ही पास किया। इस वेश में एक बड़प्पन है, संजीदगी है, शालीनता है।
हनुमान्जी के दर्शन करने गया और उनके चरण का सिन्दूर छाती पर लगाया। इससे काफ़ी बल मिला और घर आकर सवा रुपया ताक़ में रख दिया कि आज मेरा भाषण जम गया तो रात को ही हनुमानजी का प्रसाद बाँटूँगा।
अपने कमरे में लेटकर मैंने भाषण दोहराया, ठीक था, घबराहट भी आजकल जैसी नहीं थी और सफलता अब मेरे सामने थी। समय पर कपड़े पहन उत्सव में चला तो घर से बाहर पैर रखते ही कहीं दर शंख बजा।
मेरा मन विश्वास से भर गया। यह शुभ शकुन था। मुझे लगा कि यह राजकुमार बाबू पर मेरी विजय का शंखनाद है। ताँगे में बैठते-बैठते मैंने मन में कहा, हे सत्यनारायण स्वामी, आपकी कृपा से आज मुझे सफलता मिल जाए तो मैं धूमधाम से आपकी कथा कहलवाऊँगा।
मैं ठीक समय जलसे में पहुँच गया। मन्त्रीजी ने मेरा स्वागत किया। सच तो यह है कि सब मेरी ही ओर देख रहे थे और ठीक भी है कि उत्सव का प्राण तो वक्ता ही होते हैं। फिर वक्ताओं में दो तो पुराने घिसे हुए थे और चार सीखतड़, आज का मुख्य वक्ता मैं ही था।
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
- मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
- रहो खाट पर सोय !
- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
- लीजिए, आदमी बनिए !
- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में