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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।


हम सबने कहा, “यह सब तो मजबूरी का सन्तोष है भाई साहब !' पर वे मुसकराते रहे। बाद में एक दिन हमने सुना कि बरसात में उस मकान की एक छत गिर गयी और कई आदमी उसमें दबकर मर गये। उन्होंने हम सबसे कहा, "कहो, मकान न मिलने में ही हित निकला या नहीं?" सचमुच वह मकान उन्हें मिला होता तो आज हम समाचार सुनने की जगह एक मर्मवेधी दृश्य देखते !

“सचमुच भैया, तुम्हारे तुलसीदास की यह खाट-फ़िलासफ़ी तो एक बड़े काम की बात मालूम होती है।"

“बड़े काम की? अजी, इससे भी बढ़कर बड़े-बड़े कामों की है यह बात भाई साहब ! लो एक लोक-कथा सुनाता हूँ तुम्हें, जिसे सन्त तुलसी के तत्त्वज्ञान की बस व्याख्या ही समझो।"

“एक राजा था। एक उसका वज़ीर था। वज़ीर हर बात में कहा करता 'अच्छा ही हुआ।' राजा का बेटा एक दिन अपना पहला शिकार खेलने गया। वहाँ शेर ने पंजा मारकर उसका दाहिना अँगूठा उड़ा दिया। जब दरबार में उसका ज़िक्र हुआ तो वज़ीर बोला, 'अच्छा ही हुआ।' राजा को गुस्सा आ गया। राजा ने कहा, 'जा निकल जा, मेरे राज से।' वज़ीर ने कहा, 'अच्छा ही हुआ' और वह दूर चला गया। कुछ दिन बाद भील लोग उस राजकुमार को उठा ले गये और एक खम्भे से बाँधकर उसे काली माई की बलि देने लगे। जब भीलों का गुरु राजकुमार के गले पर छुरा रखने लगा तो उसने वो कटा हुआ अंगूठा देखा। चिल्लाकर गुरु बोला, 'छोड़ दो इसे, यह तो खण्डित है।' राजकुमार छूटकर घर आया तो राजा ने कहा, देखो, उस दिन वज़ीर ने ठीक ही कहा था कि अच्छा ही हुआ। राजा ने आदर-मान के साथ वज़ीर को बुलाकर उसे फिर से ओहदा दिया।"

क्या तत्त्व है इस लोक-कथा का? बस यही कि आदमी नहीं जानता कि किसमें भला है, किसमें बुरा है। और बात यह है कि आदमी सिर्फ़ आज को देखता है, कल को नहीं; पर अनुभव यह है कि आज की बुराई में कभी-कभी कल की भलाई छिपी रहती है। कटे अँगूठे ने ही राजकुमार की जान बचायी या नहीं?

तो भाई साहब, आज से तुम भी हमारे गुरु तुलसीदास के चेलों में अपना नाम लिखा लो और यह गुरुमन्त्र कण्ठ कर लो : “तुलसी भरोसे राम के रहो खाट पर सोय !" फिर सुन लो एक बार यह गुरुमन्त्र "तुलसी भरोसे राम के रहो खाट पर सोय !" और लो, अब साफ़-साफ़ कहो कि अब तो हमारे गुरु-भाई बनने में तुम्हें कोई एतराज नहीं है?

“क्या बताऊँ मेरे दोस्त, सचाई यह है कि तुम्हारी यह बात तो मेरी भी खोपड़ी में बैठती जा रही है, पर सच बताओ, इसे मानने में कोई ख़तरा तो नहीं है?"

"ख़तरा? ख़तरा इसमें बहुत बड़ा है।"

“ख़तरा इसमें बहुत बड़ा है?"

"हाँ, इतना बड़ा कि आदमी को जीते जी मुरदा बना दे। लो सुनो, तुम्हें इसका अँधेरा कोना भी दिखाता हूँ। आदमी अगर राम भरोसे नहीं, आलस्य के सहारे खाट पर पड़ सोये तो अहदी हो जाता है और अहदीपन आदमी की पराजय है, कोई विजय नहीं !

राम भरोसे खाट पर सोने का मर्म भी लो, चलते-चलाते तुम्हें बता दूँ। यह मर्म है आदमी का यह विश्वास कि बुरा तो कभी हो ही नहीं सकता, सब भला ही भला है। अब वह कर्मों के फल की चिन्ता से ही नहीं, प्रभाव से भी बच जाता है। अब तो वह एक यात्री है, जिसे अपनी राह चले चलना है। बस बिना रुके, बिना झुके, चले ही चलना है; यानी उसकी नज़र इस पर नहीं कि जीवन में मुझे क्या मिला और क्या नहीं। बस, उसके देखने-सोचने की सीमा तो यह है कि मैं जिया किस तरह-मेरे जीने में कोई खोट तो नहीं, कमी तो नहीं, कोई कुरूपता तो नहीं।"

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

विनामूल्य पूर्वावलोकन

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