कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
आज बाहर से आया तो देखा प्रेस के बाहर जो नया पेशाबघर बनाया गया है, उसकी दीवार पर छपे हुए दो-तीन काग़ज़ लगे हैं। छपाई मोटी। दूर से ही पढ़ा, यह पेशाबघर केवल प्रेस के कर्मचारियों के लिए है।
बार-बार मैंने उसे देखा और बार-बार उसे पढ़ा। देखते-देखते ही कुछ क्षण में मुझे लगा कि यह पोस्टर मेरे कलेजे पर चिपका है, दीवार पर नहीं और उससे मेरे फेफड़े ठीक काम नहीं कर पा रहे हैं।
सीधे मैं प्रेस में गया और पूछा कि यह पोस्टर किसने तैयार किया है?
मेरे पुत्र अखिलेशजी बैठे थे। बोले, तैयार तो मैंने ही किया है।
अपनी बात को उपदेश की कोटि में जाने से रोकने को मैं ज़ोर से हँस पड़ा, और वातावरण जब मुलायम हो गया तो मैंने कहा, “क्यों भाई, बहुत-से लोगों ने दूसरों के आराम के लिए धर्मशालाएँ बनवा दीं, कुछ ने कुएँ खुदवा दिये, पर तुम्हें यह भी स्वीकार नहीं कि तुम्हारे पेशाबघर में आते-जाते लोग अपनी ज़रूरत पूरी कर लें, जबकि इससे तुम्हारा न एक पाई खर्च बढ़ता है, न काम रुकता है, न कोई दूसरा ही नुक़सान होता है?" अखिलेशजी उठे और उन्होंने तुरत वह पोस्टर दीवार से खुरच दिया और यों यह पोस्टर-काण्ड समाप्त हो गया।
अब मैं अपनी कोठरी में हूँ और देख रहा हूँ कि वह पोस्टर दीवार से उतरकर भी मेरी खोपड़ी के भीतर चिपका है। फिर जब दाँतों में तिनका है तो जीभ कैसे चुप बैठे, और खोपड़ी में खुरचन है तो फिर मेरा कहा मानकर वह मेरे काम में कैसे लगे?
अच्छा, तो क्या है जी, वह खुरचन?
खुरचन यह है कि आख़िर किसी के दिमाग में यह पोस्टर लगाने की बात उपजी ही क्यों?
सोचते-सोचते ध्यान आया कि अखिलेशजी के घर के सामने ही स्टेट बैंक है और उसके पेशाबघर की दीवार पर लिखा है, "सिर्फ बैंक कर्मचारियों के लिए।
बस, कुंजी हाथ आ गयी कि बैंक के उस नोटिस को आते-जाते अखिलेशजी देखते रहे और भीतर-ही-भीतर उसकी छाप उनके मन पर पड़ती रही और यों एक दिन यह पोस्टर तैयार हो गया।
सहसा मेरे मन में आया कि यह घटना विज्ञापन के महत्त्व पर कितना पैना प्रकाश डालती है। एक ही बात बार-बार सुनते-देखते मन पर एक संस्कार बन जाता है और वह संस्कार तब हमारे कार्य का संचालन करता है। चाय का प्रचार भी विज्ञापन के सहारे हमारे देखते-देखते हो गया और सिगरेट का पहले हो गया था। सिनेमा के हर खेल के लिए जो विज्ञापन होता है, वह हम देखते ही हैं।
मेरे मन में एक सुई-सी चुभी, बुरी चीज़ को आवश्यक बनाने के लिए, जब इतने विज्ञापन की आवश्यकता है तो अच्छी चीज़ को, बुरों के मन में अभी जिसकी माँग नहीं है, आवश्यक बनाने के लिए कितने विज्ञापन और प्रचार की आवश्यकता है ! पण्डित नेहरू की चीन-यात्रा से लौटने पर उनकी पुत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने एक पत्रकार से कहा कि “मुझे चीन की सबसे बड़ी विशेषता यह लगी कि वहाँ के लोगों में अपने देश की शक्ति बढ़ाने के लिए अत्युत्साह है।"
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
- मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
- रहो खाट पर सोय !
- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
- लीजिए, आदमी बनिए !
- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में