पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
सुदामा की आँखें कक्ष से बाहर जाती हुई रुक्मिणी का पीछा करती रहीं। उनके कक्ष से बाहर निकलते ही, धीरे-से बोले, "क्या कर रहे हो कृष्ण ? भाभी को भेज दिया। कोई दास-दासी..."
"भाई! अब तुम्हारे काम भी दास-दासियों से करवाऊं।" कृष्ण बोले, "दास-दासियों से तुम्हारी सेवा करवानी होती, तो तुम्हें अतिथि-कक्ष में ठहराता और दो दासियां सेवाटहल के लिए नियुक्त कर देता। पर, एक तो भाभी तुम पर सदा सन्देह करतीं और फिर वहां हमारी गप्प-गोष्ठी कैसे जमती?" कृष्ण खिलखिलाकर हंस पड़े।
रुक्मिणी लौट आयीं। उनके साथ दो दासियां थीं, जिनके हाथों में आवश्यक वस्तुएं थीं।
कृष्ण ने एक बड़ा-सा खाली पात्र सुदामा के पैरों के नीचे रखा और रुक्मिणी को संकेत किया, "पानी डालो।"
दासी के हाथ से पात्र रुक्मिणी ने स्वयं ले लिया। धार बांधकर पानी छोड़ा। कृष्ण ने पैर धोने के लिए हाथ उठाया तो सुदामा नै पैर हटा लिया, "कृष्ण!"
"आतिथेय-धर्म भी नहीं निभाने दोगे? मैंने तो युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भी अतिथियों के पैर धोने का दायित्व लिया था।" कृष्ण मुस्कराए, "तुम लोग जाओ।" उन्होंने दासियों को आदेश दिया।
अब सुदामा विरोध नहीं कर सके। संकुचित हुए-से बैठे रहे। कृष्ण ने उनके हाथ-मुंह और पैर धुलाने के पश्चात् पूछा, "थकान कुछ दूर हुई?"
"मैं स्नान कर लेता तो...।"
"स्नान भी कर लेना।" कृष्ण उठे, "वह अभी तक तुम्हारा सामान नहीं लाया।"
"सामान साथ के कक्ष में रखवा दिया है।" रुक्मिणी बोलीं। "यहां मंगवाओ भई, यहां।"
और फिर कृष्ण स्वयं ही जाकर साथ के कक्ष से सुदामा की लाठी, लोटा-डोरी और गठरी उठा लाये।
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