पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
कुछ ऐसा ही सामान बाबा का भी हआ करता है; पर उसे देखकर न कभी बाबा संकुचित हुए और न कभी सुदामा को ही कुछ अटपटा लगा। पर इस राजसी वैभव के बीच अपनी इन वस्तुओं को देखकर सुदामा संकुचित से हो गये।
"लाओ। मुझे दे दो।" उन्होंने हाथ बढ़ाया।
"देते हैं भाई।" कृष्ण ने मुस्कराकर अपना हाथ ऊंचा उठाकर उन्हें टाला, "घबरा क्यों रहे हो। कोई लेकर भागा नहीं जाता।"
कृष्ण एक-एक कर वस्तुएं सुदामा को लौटाने लगे, "यह लो लाठी। लोटा-डोरी। इन वस्तुओं की तुम्हें यहां आवश्यकता नहीं है। ये रहे वस्त्र। स्नान के बाद इनकी आवश्यकता होगी। और...यह क्या है?"
सुदामा ने देखा : यह वही पोटली थी, जिसमें सुशीला ने कृष्ण को देने के लिए चिऊड़ा बांधा था। पर इस राजसी वैभव में चिऊड़े का क्या काम? सुदामा की इच्छा हुई कि पोटली को लेकर चुपचाप कपड़ों की गठरी में बांध लें।
"कुछ नहीं। यूं ही।" सुदामा ने पोटली पकड़नी चाही।
कृष्ण की आँखों में लीला घिर आयी, "वाह मित्र! हम ही से चालाकी। भाभी की भेजी भेंट हमें दोगे नहीं।"
कृष्ण छिटककर पीछे हट गये। इस छीना-झपटी के लिए सुदामा तैयार नहीं थे। वैसे भी कृष्ण की बात ठीक थी : भाभी के द्वारा भेजी गयी यह भेंट कृष्ण के लिए ही थी।
सुदामा ने असहाय दृष्टि से रुक्मिणी की ओर देखा। रुक्मिणी अपने स्थान पर निश्चल खड़ी, अपनी भंगिमा से कह रही थी, "इनकी तो आदत ही ऐसी है।"
इस बीच कृष्ण ने पोटली खोल ली थी। चिऊड़ा देखकर वे खिल उठे, "वाह! भाभी ने चिऊड़ा भेजा है।"
कृष्ण ने मुट्ठी भरकर चिऊड़ा मुंह में डाला और गपगप चबाने लगे।
"तुम ऐसे ही मुंह में मक्खन ठूस लिया करते होंगे।" सुदामा हंसे।
"ऐसे!" कृष्ण भरे हुए मुख से बड़ी कठिनाई से बोले और दूसरी मुट्ठी भी मुख में डाल ली।
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